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'नो लॉ' - लॉ
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महाराज को तो अनिवार्य रूप से जाना ही पड़े, ऐसा हो गया। उन महाराज ने कहा, 'ठीक है, तब मैं चला जाऊँगा। यहाँ से चार मील दूर छाणी गाँव है, वहाँ विहार कर जाऊँगा। लेकिन चार मील मुझसे चला जा सके ऐसा नहीं है, तो डोली की व्यवस्था कर दीजिए।' तब संघपति ने कहा कि, 'आज तक ऐसी डोली तो हमने किसी के लिए करके दी हो ऐसा याद नहीं है।' तब उन्होंने वापस पिछले सब रिकॉर्ड देखे, हिसाब की किताबें देखीं, उनकी नियम की किताबें उठाई, लेकिन कहीं भी उन्हें ऐसा मिला ही नहीं कि पैर से लँगड़ाने के कारण किसी महाराज के लिए डोली की व्यवस्था करनी पड़ी हो! इसलिए उन्होंने तो महाराज से कहा कि, 'ऐसा कोई नियम बनाया ही नहीं गया है तो हम क्या करें!' नियम कैसे तोडें? अरे, क्या सभी पैर से लँगड़ाते हैं, जो ऐसा नियम बनाना पड़ता? कुछ व्यवहारिक समझ तो चाहिए न कि जड़ की तरह ही नियम को पकड़कर बैठना है?
वे महाराज बेचारे मेरे पास आए और मुझे कहने लगे। मुझे कहा कि, 'भाई, देखो न! इस संघ ने मेरी यह अवदशा की है। पचास रुपये कोई निकालता नहीं और डोली की व्यवस्था करता नहीं, और दूसरी तरफ ऐसा कह रहे हैं, 'विहार कर जाइए, विहार कर जाइए।' क्या करूँ अब मैं? आप ही कोई रास्ता निकालिए।' फिर हमने उनके लिए पैसों की व्यवस्था कर दी। उसके बाद डोली की व्यवस्था हुई और महाराज को बैन्डबाजे बजाकर बिदाई दी गई! बड़ी शोभायात्रा निकाली और संघपति भी सिर पर पगड़ी-वगड़ी लगाकर धूमधाम से महाराज की शोभायात्रा में निकले!
अरे! ये बाजे बजाए और शोभायात्रा का उत्सव किया उसमें पाँच सौ रुपये खर्च किए और महाराज के लिए डोली करने के लिए पचास रुपये नहीं खर्च सके? कारण क्या? तो कहा, 'शोभायात्रा का नियम तो हमारे पास है, लेकिन यह डोली का नियम तो हमारे पिछले इतिहास में भी नहीं है, तब फिर हम ऐसा किस तरह करें?'
__ अब इसे मुझे 'अव्यवहारिकता' नहीं तो और क्या कहना चाहिए?