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आप्तवाणी-२
दादाश्री : पूजा करते हो तो पूज्य पुरुष की करते हो या अपूज्य की?
प्रश्नकर्ता : मैं तो पुष्टिमार्गी हूँ। सेवित ठाकुर जी की स्थापना की है, उनकी पूजा करता हूँ।
दादाश्री : हाँ, लेकिन वे पूज्य हैं, इसलिए स्थापना की है न? जो पूज्य नहीं हों, उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए। पूज्य बुद्धि से पूज्य की पूजा करनी चाहिए। पूजा सिर्फ करने की खातिर ही नहीं करनी चाहिए। लेकिन पूज्य बुद्धि से पूजा करनी है। ठाकुर जी पर पूज्य बुद्धि तो है न? ठाकुर जी कभी आपके साथ बातचीत करते हैं क्या!
प्रश्नकर्ता : अभी तक तो लाभ नहीं मिला है।
दादाश्री : ठाकुर जी किस कारण से आपके साथ बात नहीं करते? मुझे लगता है कि ठाकुर जी शर्मीले होंगे या फिर आप शर्मीले हो? मुझे लगता है दोनों में से एक शर्मीला है!
प्रश्नकर्ता : पूजा करता हूँ, लेकिन ठाकुर जी को बुला नहीं सकता।
दादाश्री : बुला नहीं सकते न? हम रामचंद्र जी के वहाँ जयपुर में और अयोध्या में गए थे तो वहाँ रामचंद्र जी बोल रहे थे। हम जहाँ नई मूर्ति देखते हैं वहाँ प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। ये बिरला ने जयपुर में और अयोध्या में मंदिर बनवाए हैं, वहाँ हमने रामचंद्र जी की मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा की थी। दोनों जगह पर आश्चर्य खड़ा हुआ था। हमारे महात्मा पैंतीस जने बैठे थे और वहाँ के पुजारी को तो रामचंद्र जी बहुत हँसते हुए दिखाई दिए। उसने तो जब से मंदिर बना था तब से रामचंद्र जी को रूठे हुए ही देखे थे। यानी मंदिर भी रूठा हुआ और दर्शन करनेवाले भी रूठे हुए। रामचंद्र जी की मूर्ति हँसी, वह देखकर पुजारी दौड़ता हुआ आकर हमें फूलमाला पहना गया। मैंने पूछा, 'क्यों?' तो वह तो फूट-फूटकर रोने लगा। कहने लगा कि, 'ऐसे दर्शन तो कभी भी हुए ही नहीं। आज आपने खरे रामचंद्र जी के दर्शन करवा दिए।' हमने कहा, 'यह लोगों के कल्याण के लिए किया है। अभी तक रामचंद्र जी रूठे हुए थे, इससे लोगों का क्या