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राग-द्वेष
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ऐसे और सोते समय भी ऐसे के ऐसे ही। 'दादा' की निरंतर एक ही परिणति होती है! निरंतर आत्मरमणता में और परमानंद में ही होते हैं!
राग-द्वेषवाली वाणी कैसी होती है कि सगे भाई को मान से नहीं बुलाते और डॉक्टर को 'आओ साहब, आओ साहब' करते हैं, क्योंकि भीतर मतलब होता है कि कभी काम आएँगे। हमारी वाणी वीतराग होती है। वीतराग वाणी क्या कहती है कि, 'तू अपना काम निकाल लेना, हमें तुझसे कोई काम नहीं है।' वीतराग वाणी काम निकालकर निपटारा लाने को कहती है। 'मोक्ष हाथ में लेकर यहाँ से जा' ऐसा कहती है।
द्वेष से त्याग किया हुआ राग से भोगता है
जब तक तुझे राग-द्वेष है, तब तक तू वीतराग नहीं हुआ है। यदि नीबू का त्याग किया हो और फिर किसी भोजन में भूल से नीबू डल गया हो, तो चिढ़ जाता है। इसका अर्थ यह है कि जिसका राग से त्याग किया गया हो उसे द्वेष से भुगतना पड़ता है और जो द्वेष से त्यागा हो उसे राग से भुगतना पड़ता है। किसीने बीड़ी नहीं पीने की कसम खाई हो और उसे यदि बीड़ी पिला दे तो उसे ऐसा हो जाता है कि मेरी कसम तुडवा दी, तब उसे भीतर क्लेश हो जाता है। राग-द्वेष से त्याग करना यानी क्या? कि एक चीज़ पसंद हो फिर भी द्वेष से त्याग कर देता है कि मुझे यह पसंद नहीं है, इसके बावजूद जब वह चीज़ सामने आती है तब वापस टेस्ट आ जाता है। द्वेष से त्याग करने जाए तो राग से भोगता है। यह तो सभी ने राग से त्याग दिया है इसलिए द्वेष से भुगतना पड़ता है।
जहाँ स्पर्धा वहाँ द्वेष जब व्याख्यान दे रहे हों, तब महाराज के राग-द्वेष नहीं दिखते, वीतराग जैसे दिखते हैं। लेकिन महाराज के विरोधी पक्षवाले आ जाएँ तो बैरभाव दिखता है। अरे! यहाँ 'ज्ञानीपुरुष' के पास भी यदि एक पक्ष के महाराज के पास दूसरे पक्ष के महाराज आकर बैठें तो भी उनसे सहन नहीं होता। अभी तो जहाँ-जहाँ स्पर्धक, वहाँ-वहाँ द्वेष होता है। जबकि दूसरी सभी जगहों पर वीतराग रहता है, लेकिन यदि जान जाए कि मेरे से ऊँचे