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आप्तवाणी-२
लेना चाहिए। फिर कोई आपको दोनों में से एक भी दे तो भी आपको वह छूएगा नहीं। बाहर यदि दोनों समान दिखेंगे तो अंदर भी दोनों समान दिखेंगे। सभी पाये समान तो दिखने ही चाहिए न! यदि पलंग के चारों पाये समान नहीं हों, तब उसे भी आधार देना पड़ता है न? जबकि ये दोनों तो एक ही माँ के बेटे हैं, तो फिर उनमें भेद क्यों? इस द्वंद्व के कारण तो जगत् खड़ा है। बखानना और बदगोई करना, ये दोनों द्वंद्व ही हैं। दोनों द्वंद्वों से द्वंद्वातीत होना पड़ेगा, वीतराग होना पड़ेगा।
पसंद-नापसंद में से राग-द्वेष पसंद और नापसंद, ये दो भाग हैं। पसंद यानी ठंडक और नापसंद यानी अकुलाहट? यह पसंद आनेवाला यदि अधिक प्रमाण में हो जाए तो वह फिर नापसंद हो जाता है। आपको जलेबी खूब भाती हो और आपको रोज़ आठ दिन तक रात-दिन जलेबी ही खिलाते रहें तो आपको क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : तो फिर वह अच्छा नहीं लगेगा, ऊब जाएँगे उससे।
दादाश्री : पसंद-नापसंद यदि एक्सेस हो जाएँ तो वे राग-द्वेष में परिणामित होते हैं और वे यदि सहज ही रहें तो कुछ बाधक नहीं होता। क्योंकि पसंद-नापसंद, वह नोकर्म है, हल्के कर्म हैं, गाढ़ नहीं। उनसे किसी को नुकसान नहीं होता। ये 'ज्ञानीपुरुष' भी, यदि यहाँ पर गद्दी हो और पास में चटाई हो तो वे गद्दी पर बैठेंगे क्योंकि विवेक है और वह सभी को मान्य है। लेकिन कोई कहे कि यहाँ से उठकर वहाँ बैठिए तो हम वैसा भी करेंगे। हमें भी पसंद-नापसंद रहता है। आप हमें यहाँ से उठाकर नीचे बिठाओ तो हम वहाँ लाइक करके बैठ जाएँगे, हमें लाइक-डिस्लाइक का थोड़ा-बहुत पूर्व पर्याय है। बाकी आत्मा को ऐसा नहीं होता। पसंदनापसंद वह चेतनता का फल नहीं है। यह सब्जी ज़रा कड़वी लगे तो तुरंत ही नापसंदगी हो जाती है, क्योंकि वह साग़-सब्जी है। जिसमें पसंद-नापसंद लगे, वे सभी सब्जी-भाजी हैं, वह चेतनता का फल नहीं है। 'दादा' को तो कभी कुछ नापसंद जैसा नहीं होता। 'दादा' तो सुबह जागते हैं तब भी