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आप्तवाणी-२
राजा के वहाँ सर्विस तय हो जाए और राजा से मिलने जाएँ तो दृष्टिफल मिलता है। नौकरी की तनख़्वाह मिलती है, वह सेवाफल, लेकिन दृष्टिफल यानी राजा की दृष्टि पड़े और वे भाई से पूछें कि, 'आप कहाँ रहते हो?' ऐसा जानने के बाद उसे रहने के लिए अच्छी जगह मिल जाती है, वह दृष्टिफल। सिर्फ राजा की दृष्टि से ऐसा फल मिले तो 'ज्ञानीपुरुष' की दृष्टि से क्या नहीं मिल सकता ? राजा तो अधूरा है, उसे तो राज्य बढ़ाने का लालच है, जबकि ये तो 'ज्ञानीपुरुष' हैं, जो संपूर्ण निरीच्छक दशा में बरतते हैं! और उनकी दृष्टि का फल तो कैसा होता है ? यहाँ सत्संग में आया, तो यहाँ से वह अवश्य दृष्टिफल लेकर ही जाता है। सेवाफल में तो राजा से ढाई सौ रुपये मिलते हैं । राजा को वंदन करके आया इसीलिए तो दृष्टिफल मिलता है।
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'ज्ञानीपुरुष' के दर्शन किए उससे तो सबसे बड़ा फल, अभ्युदय और आनुषंगिक मिलते हैं और उससे तो उच्चतम प्रकार की शांति रहती है । संसार के विघ्न बाधक नहीं होते और मोक्ष का काम होता है, दोनों साथ में ही होते हैं ।
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यदि वीतराग भगवान के दर्शन करना आए, तो भले ही वे मूर्ति हैं, फिर भी अभ्युदय और आनुषंगिक फल मिलता है। लेकिन वह दर्शन करना तो ‘ज्ञानीपुरुष' समझाएँ तब आता है। वर्ना किसी को आता नहीं है न। 'ज्ञानीपुरुष' तो मूर्तामूर्त हैं । इसलिए उनके दर्शन से तो अभ्युदय और आनुषंगिक दोनों फल मिलते हैं। 'ज्ञानीपुरुष' के दर्शन के लिए तो कोटि जन्मों के पुण्य का चेक भुनाना पड़ता है । हज़ारों सालों में 'ज्ञानीपुरुष' प्रकट होते हैं, और उसमें भी ये तो 'अक्रम ज्ञानी, ' यानी कोई जप-तप नहीं और बिना मेहनत के मोक्ष ! 'ज्ञानीपुरुष' से दृष्टिफल मिलता है और उससे मोक्षफल मिलता है और सेवाफल से संसार का अभ्युदय होता है । यहाँ सेवा में परम विनय रहे, वही सेवा । यहाँ 'ज्ञानीपुरुष' को कोई कमी है? वे किसी चीज़ के भिखारी ( इच्छुक ) नहीं होते । फूल से विनय, वही सेवा ! जिन्हें सांसारिक अड़चनें हों, वे 'ज्ञानीपुरुष' को फूल चढ़ाएँ तो अड़चनें दूर हो जाती हैं। भगवान ने भावपूजा और द्रव्यपूजा दोनों साथ में रखी हैं।
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