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राग-द्वेष
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आत्मा में राग नाम का गुण है ही नहीं, वह तो खुद वीतराग ही है। वीतराग क्या कहते हैं कि यह पुतला जैसे नाचे, उसे जानो कि पुतला किस ओर खिंचा और किस ओर नहीं खिंचा? वीतरागों का यह शुद्ध, निर्मल मत है और वही हमने आपको दिया है।
आत्मस्वरूप हुए बिना छूट नहीं पाएँगे। गच्छ मतलब चूल्हा और मत भी चूल्हा, तो चूल्हे में कोई पड़ता होगा क्या? वह तो पोइजन कहलाता है। मत तो सिर्फ आत्मा के लिए ही होना चाहिए, यह तो 'हमारा' और 'आपका' में पड़े हैं। भगवान तो निष्पक्षपाती मत के हैं!
राग-द्वेष, वे तो आत्मा की वृत्ति के सामने आकर्षण-विकर्षण है। आकर्षण के सामने रुकावट आए, वहाँ पर द्वेष होता है।
प्रश्नकर्ता : राग-द्वेष सजातीय और विजातीय के कारण से हैं?
दादाश्री : लोहचुंबक जैसा है। राग बहुत अलग ही चीज़ है। जीवित लोगों के प्रति जो आकर्षण होता है, लोग उसे राग कहते हैं, लेकिन वह वीतरागों की भाषा का राग नहीं है। परमाणुओं का आकर्षण है, तो उसे राग कहते हैं और विकर्षण को द्वेष कहते हैं।
एक बार रात को हमारे मुहल्ले का एक पहचानवाला व्यक्ति जोरों से दौड़ता-दौड़ता जा रहा था। अब दो सौ किलो का वह बोरा रास्ते में गिर पड़ा। इसलिए दो-तीन बार लुढ़क गया! उसे मैंने पूछा कि, 'भाई, इतनी रात को इतना दौड़ते-दौड़ते क्यों जा रहा है?' तो कहता है कि, 'जलेबी लेने दौड़ रहा हूँ! हम ताश खेल रहे थे, तो एक जना शर्त हार गया इसलिए दस रुपये की जलेबी लेने जा रहा हूँ। देर हो गई है, वह दुकान बंद न हो जाए, इसलिए दौड़ रहा हूँ!' । ____ जब से खुद का और पराया ऐसे दो भेद डाले, तभी से राग-द्वेष खड़े होने लगते हैं, पराया कहा तो द्वेष खड़ा हो जाता है। यह तो मस्जिद देखे तो अच्छा नहीं लगता, शिव का मंदिर आए तो यह हमारा नहीं, यह पराया है, ऐसा कहते हैं तब तक द्वेष खड़ा रहता है और सभी जगह अपना लगे तो राग-द्वेष मिटते हैं। ऑपॉज़िट में जाए तो ऑपोज़िशन नहीं रहता।