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राग-द्वेष
प्रश्नकर्ता : राग किसे कहते हैं?
दादाश्री : जहाँ खुद नहीं है वहाँ पर 'मैं हूँ' ऐसा बोलना, वही सबसे बड़ा राग, वही जन्मदाता है । 'मैं चंदूलाल' वही राग है, यह राग टूटा तो सभी राग टूटे। जिसे ‘मैं शुद्धात्मा हूँ,' वह लक्ष्य है, उसके सभी राग टूट गए हैं और जिसे ‘मैं आचार्य हूँ, मैं कलक्टर हूँ' ऐसा भान है, उसके सभी राग खड़े हैं! ये तो ऐसे तंतीले हो गए हैं कि एक बात टेढ़ी कही हो तो आँखों में से ज़हर टपकने लगता है । वीतराग की बात को समझे नहीं हैं । 'मैं चंदूलाल हूँ' वह भान हो, तब सभी राग खड़े हो जाते हैं और शुद्धात्मा का भान हुआ और जहाँ पर है, वहाँ 'मैं हूँ' बोलता है, वह राग नहीं है, लेकिन वीतराग का लक्ष्य है। शुद्धात्मा वीतराग ही है, उसे लक्ष्य में रखने से 'बाहर' का रिलेटिव सब शुद्ध होता जाता है। वीतराग कौन? 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वह अथवा 'दादा' याद आएँ, तो वह भी वीतराग का लक्ष्य है। वीतराग कौन? ज्ञानी में जो प्रकट हुए हैं, वे संपूर्ण वीतराग हैं! और ज्ञानी ने दिया है वह लक्ष्य है, वह संपूर्ण वीतराग का लक्ष्य है । यह ग़ज़ब का पद आपको दिया है !
प्रश्नकर्ता : मुझे मेरे बेटे पर बहुत राग होता है, तब फिर वह क्या
है ?
दादाश्री : आत्मा में राग नाम का गुण है ही नहीं, और लोग कहते हैं कि मेरा आत्मा रागी - द्वेषी है। लेकिन यह क्या है ? इस देह में इलेक्ट्रिक बॉडी है, इसलिए जब मिलते-जुलते परमाणु आते हैं तब पूरी बॉडी लोहचुंबक की तरह खिँच जाती है । उसे लोग कहते हैं कि, 'मैं खिंचा,' 'मुझे राग हो रहा है, ' लेकिन उसमें आत्मा ज़रा सा भी नहीं खिंचता है।