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आप्तवाणी-२
के कारण और अन्डरहैन्ड है वह भी अपनी भूल के कारण ही है। इसलिए भूल मिटानी पड़ेगी न?
खुद की ही भूल है, ऐसा यदि समझ में नहीं आए तो अगले जन्म का बीज पड़ता है। यह तो हम टोकते हैं, फिर भी यदि नहीं चेते तो क्या हो? और अपनी भूल नहीं हो तो अंदर ज़रा सा भी बखेड़ा नहीं होता। हम निर्मल दृष्टि से देखें तो जगत् निर्मल दिखता है और हम टेढ़ा देखें तो जगत् टेढ़ा दिखता है। इसलिए पहले खुद की दृष्टि निर्मल करो।
प्राकृत गुणों का मोह क्या? प्रश्नकर्ता : दादा, हम लोगों को दोष नहीं देखने हैं, बल्कि गुण देखने हैं?
दादाश्री : नहीं। दोष भी नहीं देखने हैं और गुण भी नहीं देखने हैं। ये दिखते हैं, वे गुण तो सारे प्राकृत गुण हैं। उनमें से एक भी टिकाऊ नहीं है। दानवीर हो, वह पाँच साल से लेकर पचास साल तक, उसी गुण में रहा हो, लेकिन सन्निपात हो जाए, तब वह गुण बदल जाता है। ये गुण तो वात, पित्त और कफ से रहे हुए हैं, अगर इन तीनों में बिगाड़ हो जाए तो सन्निपात हो जाता है। ऐसे गुण तो अनंत जन्मों से इकट्ठे करते रहे हैं। फिर भी, ऐसे प्राकृत दोष इकट्ठे नहीं करने चाहिए। प्राकृत सद्गुण प्राप्त करेगा, तो कभी न कभी आत्मा प्राप्त कर सकेगा। दया, शांति, ये सब गुण हों, वहाँ भी यदि वात, पित्त और कफ बिगड़ जाए तो वह सब को मारने लगेगा। ये तो प्रकृति के लक्ष्य कहलाते हैं। ऐसे गुणों से पुण्यानुबंधी पुण्य बंधते हैं। उससे किसी जन्म में 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाते हैं, तो काम हो जाता है। लेकिन ऐसे गुणों में बैठे नहीं रहना है क्योंकि कब उनमें परिवर्तन हो जाए, वह कह नहीं सकते। वे खुद के शुद्धात्मा के गुण नहीं हैं। वे तो प्राकृत गुण हैं। उन्हें तो हम लटू कहते हैं। पूरा जगत् प्राकृत गुणों में ही है। पूरा जगत् लटू छाप है। यह तो, प्रकृति सामयिक-प्रतिक्रमण करवाती है और खुद सिर पर ले लेता है और कहता है कि, 'मैंने किया!' वह यदि भगवान से पूछे तो भगवान कहेंगे कि, 'इनमें