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आप्तवाणी-२
निकलती है। वह किसलिए? तब कहे, वैसा सामनेवाले के व्यवहार के अधीन होता है।
जैसे व्यवहार से लपेटा गया है उसी तरह के व्यवहार से खुलता है। अगर आप मुझसे पूछो कि, 'आप मुझे क्यों नहीं डाँटते?' तो मैं कहूँगा कि, 'आप वैसा व्यवहार नहीं लाए हैं। जितना भी व्यवहार आप लाए थे उतना आपको टोक दिया, उससे अधिक व्यवहार नहीं लाए थे।' हमारी,' 'ज्ञानीपुरुष' को कठोर वाणी होती ही नहीं, और सामनेवाले के लिए कठोर वाणी निकले तो वह हमें पसंद नहीं आता। और फिर भी यदि निकली तब हम तुरंत ही समझ जाते हैं कि इसके साथ हम ऐसा ही व्यवहार लाए हैं। वाणी, वह सामनेवाले के व्यवहार के अनुसार निकलती है। वीतराग पुरुषों की वाणी निमित्त के अधीन निकलती है। जिसे किसी भी प्रकार की कामना नहीं है, कोई इच्छा नहीं है, किसी भी प्रकार के राग-द्वेष नहीं हैं. ऐसे वीतराग पुरुषों की वाणी सामनेवाले के निमित्ताधीन है। वह सामनेवाले के लिए दुःखदायी नहीं होती। 'ज्ञानीपुरुष' को तो कठोर शब्द बोलने की फुरसत ही नहीं होती, फिर भी अगर कोई महापुण्यशाली आए तो उसकी कठोर शब्द सुनने की बारी आ जाती है। सामनेवाले का व्यवहार ऐसा है, इसलिए रोग निकालने के लिए हमें ऐसी वाणी बोलनी पड़ती है। नहीं तो ऐसा हमें कहाँ से हो? जो एक घंटे में मोक्ष देते हैं. उन्हें भला कहाँ कठोर शब्द कहने होते हैं? लेकिन उसका रोग निकालने के लिए ऐसी कठोर वाणी निकल पड़ती है! कवि क्या कहते हैं कि,
'मुओ जेने कहे ए तो अजर अमर तपे,
गाळ्युं जेणे खाधी एनां पूरवना पापोने वींधे।' कोई कहेगा, 'इस भाई को दादा कठोर शब्द क्यों कह रहे हैं?' उसमें दादा क्या करें? वह व्यवहार ही ऐसा लाया है। कुछ तो बिल्कुल नालायक होते हैं, फिर भी दादा ऊँची आवाज़ से नहीं बोलते, तब से ही समझ में नहीं आ जाए कि वह खुद का व्यवहार कितना सुंदर लाया है! जो कठोर व्यवहार लाए होते हैं, वे हमारी कठोर वाणी देखते हैं।
हमारे लिए घर पर ऊपर चाय आए, तो कभी यदि चाय में चीनी