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व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ
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दादाश्री : वे तो बदलते रहते हैं। ये दिन के बाद रात आती है न? यह तो आज नौकरी नहीं है, लेकिन कल नई मिल जाएगी। दोनों बदल जाते हैं। कई बार आर्थिक दुःख होता ही नहीं। लेकिन उसे लोभ लगा होता है। कल सब्जी के पैसे हैं या नहीं इतना ही देख लेना होता है। उससे अधिक नहीं देखना होता। बोलो अब ऐसा दुःख है आपको?
प्रश्नकर्ता : ना!
दादाश्री : तो फिर उसे दुःख कहेंगे ही कैसे? यह तो बिना दुःख के दुःख गाते रहते हैं। उसके बाद फिर उससे हार्टअटेक आता है, अजंपा रहता है और खुद दुःख मानता है। जिसका उपाय नहीं, उसे दुःख ही नहीं कहा जा सकता। जिसके उपाय हों उसके तो उपाय करने चाहिए, लेकिन यदि उपाय हो ही नहीं तो वह दुःख है ही नहीं।
__यह काल कैसा है? इस काल के लोगों को तो, अभी कहाँ से लक्ष्मी ले आऊँ, कैसे दूसरों का छीन लूँ, किस तरह मिलावटवाला माल देना, अणहक्क के विषय को भोगते हैं, और उसमें से फुरसत मिले तब
और कुछ ढूँढेंगे न? इससे सुख कहीं बढ़े नहीं हैं। सुख तो कब कहलाता है? मेन प्रोडक्शन करे तो। यह संसार तो बाय प्रोडक्ट है। पूर्व में कुछ किया होगा, उससे यह देह मिली, भौतिक चीजें मिलीं, स्त्री मिलती है, बंगले मिलते हैं। यदि मेहनत से मिल रहा होता, तब तो मज़दूर को भी मिलता, लेकिन वैसा नहीं है। आज के लोगों को गलतफ़हमी हो गई है। इसीलिए ये बाय प्रोडक्शन के कारखाने खोले हैं। बाय प्रोडक्शन का कारखाना नहीं खोलना चाहिए। मेन प्रोडक्शन यानी मोक्ष का साधन 'ज्ञानीपुरुष' से प्राप्त कर लें, बाद में फिर संसार का बाय प्रोडक्शन तो अपने आप मुफ्त में आएगा ही। बाय प्रोडक्ट के लिए तो अनंत जन्म बिगाड़े, दुर्ध्यान करके! एक बार तू मोक्ष प्राप्त कर ले, तो तूफ़ान खत्म हो जाए!
प्रश्नकर्ता : कोई आत्महत्या करके मर जाए तो क्या होता है? दादाश्री : भले ही आत्महत्या करके मर जाए, लेकिन वापस फिर