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व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ
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गई तो काम की, और कुछ भी काम का नही है। यह तो जब खिचड़ी नहीं मिले तब पता चल जाता है कि कौन काम का है?
'ज्ञानीपुरुष' को मान या अपमान की कुछ भी नहीं पड़ी होती। मान के सुख, वे विषय सुख हैं। 'मेरा मानभंग होगा' जब तक ऐसा भय रहेगा तब तक कुछ भी ज्ञान प्राप्त ही नहीं हुआ, ऐसा कहा जाएगा। यह तो मूल वीतराग ज्ञान ही प्राप्त करना होता है, और कुछ भी नहीं चाहिए न!
ये दु:ख के मारे हुए कितने तो यहाँ आते हैं, लेकिन सच्ची जिज्ञासा से आएँ, तब तो बहुत काम हो जाए। यह तो दुःख आए तब भगवान को बुलाते हैं, लेकिन भगवान क्या कहते हैं कि, 'अरे, सुख के टाइम पर तूने मुझे नहीं बुलाया, तब एक चिट्ठी भी नहीं लिखी, इसलिए अब तू इस दुःख के समय में चिट्ठी लिख रहा है तो मैं जवाब नहीं दूंगा।'
लोग तो कैसे हैं कि कार्य रूप में आज दुःख उत्पन्न होता है, फिर भी वैसे के वैसे दु:ख के कारणों को बार-बार खड़े करते हैं। पिछले दुःख के कारणों से जो दुःख आता है उसमें नये कारण खड़े नहीं होने दें, वह काम का है।
काम निकाल लेने जैसा 'यह' एक ही स्टेशन आया है। इसलिए खाओ, पीओ और प्राप्त संयोगों को सुख से भोगो और अप्राप्त संयोगों के लिए झंझट मत करना।
सुख तो अंदर से आएँगे। और यह तो बाहर से शहद की बूंद चखने में पड़ा हुआ है!
साधु बनने के विचार क्यों आते हैं? क्योंकि अनंतकाल से उसने जो मार खाई है वह याद आती है कि सास के दुःख, ससुर के दु:ख, पति के दुःख, पत्नी के दुःख, बच्चों के दुःख, ये सभी दु:ख अनंतजन्मों से भुगते हैं, वे याद आते हैं और कहनेवाले निमित्त भी मिल आते हैं कि 'इस संसार में कहाँ सुख है?' इसलिए उसे विचार आता है कि मुझे तो दीक्षा ही लेनी है, और फिर वह दीक्षा लेता है!
'ज्ञानीपुरुष' के पास तो आपका हर एक दुःख अवश्य मिट ही