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व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ
रहेगी तो? इन सबका टाइम होता है । काल पक जाए तब दुःखना बंद हो जाता है। एक अवस्था अड़तालीस मिनट से अधिक नहीं टिकती, इतना नियमवाला है यह जगत् !
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अवस्था में सुख नहीं होता है । अवस्था तो निरंतर बदलती ही रहनेवाली है। बगीचे में सुख होता है, फिर भी वापस घर आना पड़ता है, उसके बदले तो इस दुःख की हाँडी में पड़े रहें, जिस जगह पर दुःख है वहीं पड़े रहें तो सुख लगेगा। दुःख सहन करनेवाले को ऑटोमेटिक सुख आता रहता है, क्योंकि जो ताप में चलता है उसे बबूल के नीचे सुख लगता ही है, और यदि किसी को बबूल के नीचे सुख महसूस नहीं होता हो, तो उसे चारपाँच घंटे गर्मी में घुमाएँ तो बबूल के नीचे भी उसे सुख लगेगा। इस संसार की कलुषित क्रियाएँ और उसके फल के रूप में सुख उत्पन्न होता है ! फिर वह घर जाकर पंखा चलाकर बैठे तो, 'अहा, सुख मिला' कहता है। फिर वह चैन से चाय-पानी पीता है। और पूरे दिन घर में ही बैठे रहनेवाले सेठ के लिए यदि पंखा चलाएँ, तो उसे अच्छा नहीं लगेगा, चाय-पानी पसंद नहीं लगेंगे। इस संसार में जो कोई भी सुख है, वह थकान के फल स्वरूप है I तात्विक सुख, सनातन सुख आने के बाद कभी भी जाता नहीं!
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कुछ जगहों पर औरत पति को दुःख देती है तो किसी जगह पर पति औरत को दुःख देता है । लेकिन वह दु:ख किसलिए लगता है? तब कहे, परिमाण से कम दुःख दे रहे हैं, इसलिए । यदि परिमाण से अधिक दुःख परोसेंगे तो सुख लगेगा । जबकि यहाँ ज्ञान क्या कहता है कि, "यह मार तो पड़ती ही रहेगी ।' उसके बाद फिर सुख उत्पन्न हो जाता है!
इन चक्रवर्ती राजाओं को महलों में सुख नहीं लगा और इन गरीबों को झोंपड़ियों में सुख लगता है, वही आश्चर्य है न? सुख तो टिकाऊ होना चाहिए, आने के बाद फिर जाए नहीं । सुख तो, जैसा 'दादा' को है वैसा होना चाहिए, एक क्षण भी वह नहीं जाता, 'दादा' को निरंतर सहज समाधि रहती है!
प्रश्नकर्ता : जीव दूसरी जगह सुख किसलिए ढूँढता है?