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आप्तवाणी-२
दादाश्री : इस लड़के को यदि अच्छे दाल-चावल खाने को मिल जाएँ तो वह होटल में नहीं जाएगा। लेकिन घर पर ही संतोष नहीं रहे तो फिर वह बाहर खाने जाता है, उसी प्रकार सुख में असंतोष है, इसलिए सुख ढूँढता है। जीव अतीन्द्रिय सुख के लिए भटक रहा है। खुद का सुख किसीने चखा ही नहीं है। यह कल्पित सुख तो कितना टिकेगा? 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो अतीन्द्रिय सुख मिल जाएगा! कल्पित सुख से तो तृप्ति नहीं होती। संतोष अवश्य होता है। जब तक ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, तब तक इंसान को उल्टे सीधे का भान नहीं रहता। बुद्धि है तो संसार के हिताहित का भान बताती है, लेकिन मोक्ष के हिताहित का भान नहीं बताती। वह तो 'मैं मर जाऊँगा' ऐसा बताती है!
यह जगत् क्रम से सेट है। पद्धति अनुसार जगत् है। किसी को भी मन के दुःख नहीं है। एक मनुष्य नाम के प्राणी को ही दुःख है। प्राणी किसलिए? कि प्राण के आधार पर जीवित रहता है। अन्य किसी जानवर के मन में दु:ख नहीं है। भूख लगे तो उन्हें वेदना होती है, लेकिन ज़रा खुराक मिली कि वेदना शांत हो जाती है। उन्हें लोभ ही नहीं है न! इन मनुष्यों को ही लोभ है। वे खुद के हिस्से का तो खाता ही है, लेकिन साथवाले के हिस्से का भी छीनना चाहता है। लोभ से ही दुःख खड़े हैं!
इन मनुष्यों को अगर बुढ़ापे में पैर दुःखें तो डॉक्टर के पास दौड़ते हैं, इलाज करवाते हैं। लेकिन क्या इन पक्षियों के या मछलियों के हैं डॉक्टर? उन्हें भुगतते ही रहना है। उनमें है एक भी विषय? आहार संज्ञा होती है इसलिए खाने को चाहिए, लेकिन जीभ का विषय नहीं है। उन्हें भी यदि खाने-पीने के विषय होते तो उनकी भी दाढ़ें दुःखतीं, चश्मे लग जाते। जानवरों को भी बुढ़ापे में दुःख आते हैं, लेकिन चुपचाप सहन करना पड़ता है उन्हें!
बैल से सारे दिन खेत में खेती करवाते हैं और खुद का बैल अपने खेत में कुछ खा न जाए इसलिए मुँह पर छींका बाँधते हैं, वह बैल समझ जाता है कि मुझे कुछ नहीं खाना है। एक किसान को रात में सिनेमा देखने का मन हुआ। वह बैल के सामने अच्छी-अच्छी घास रखकर चला गया,