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जगत् व्यवहार स्वरूप
पागल बनते हैं। उसमें तो, यह उपकार करता है, वह व्यवहार है और सामनेवाला अपकार करता है, वह भी व्यवहार है । उसमें न्याय करने जाओ और मध्यस्थ को बुलाओ तो मध्यस्थ बल्कि पहले ऐसा कहेगा, 'एय! चाय - पानी और नाश्ता लाओ । '
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जहाँ व्यवहार कहा, वहाँ पर न्याय ढूँढने को रहा ही कहाँ ? तू यह नहीं समझेगा तो व्यवहार खुद ही तुझे मार - ठोककर तुझ से व्यवहार करवाएगा। इसलिए समझ जा न कि यह तो व्यवहार ही है !
प्रश्नकर्ता : दादा, व्यवहार में भीतर जलन होती रहती है, वह तरछोड़ (तिरस्कार सहित दुत्कारना) कहलाता है न?
दादाश्री : वह तो उसके साथ में रमणीय व्यवहार नहीं सँभाल पाये थे, इसलिए ऐसा होता है । इस व्यवहार में किसी को हम डाँट रहे हों, लेकिन उसमें हमारा खुद का ज़रा सा भी स्वार्थ नहीं हो, तो वह रमणीय व्यवहार होता है। उसका फल सुंदर आता है। लेकिन स्वार्थ के लिए लड़ें, पक्षपात के लिए लड़ें तो उसका फल कड़वा आता है। हमारा व्यवहार रमणीय होता है। बिना कार्य किए यश मिलता है । यों ही चरण रखते हैं और परिवर्तन हो जाता है, वह पूर्वजन्म का रमणीय व्यवहार है। अब तो अपना जितना और जैसा व्यवहार है वह पूरा करना है और फिर अब हमें नया व्यवहार कहाँ करना है? अब तो आपको व्यवहार के ज्ञाता - दृष्टा और परमानंद में रहना है।
अब अगर कोई व्यक्ति पूछने आए कि, 'मेरा बेटा ऐसा करता है, फलाँ ने ऐसा किया, ऐसा तो कोई करता होगा?' तो मैं कहूँगा कि, ‘जो हो रहा है वही न्याय है ।' न्याय तो थर्मामीटर है। दरअसल संज्ञा, वही दरअसल न्याय है। जो हो रहा है उसी को हम 'व्यवस्थित' कहते हैं । उसमें फिर न्याय-अन्याय ढूँढने का कहाँ रहा?
आज यह ग़ज़ब की बात निकली है ! यह बात वर्ल्ड में सबसे ऊँची बात है! द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के आधार पर निकल गई है, तमाम शास्त्रों के सार के रूप में निकला है ! इस वाक्य का विवरण करने जैसा है ।