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आप्तवाणी-२
किसी को दोषित नहीं देखे तो मुक्ति मिल जाती है । लेकिन यह तो 'इसने मुझे ऐसा किया, यह मेरा चोरी कर गया, ये मेरा खा गए ।' सब लोगों पर आरोप लगाता है, जो नहीं करना है वही करता है ।
निमित्त को काट खाना
अभी यदि सास दुःख दे रही हो न, तो बहू खुद के दोष नहीं देखती, लेकिन सास की ही गलतियाँ निकालती रहती है । लेकिन वह यदि धर्मध्यान समझे तो क्या करेगी? ‘मेरे कर्मों का दोष है, इसलिए मुझे ऐसी सास मिली । मेरी उस सहेली को क्यों अच्छी सास मिली है !' ऐसा विचार नहीं करना चाहिए? किसी सहेली की सास अच्छी होती है या नहीं होती? तो हम नहीं समझ जाएँ कि अपनी कोई भूल होगी न, नहीं तो ऐसी सास कहाँ से आ मिले?
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प्रश्नकर्ता : दृष्टि में फर्क है, इसलिए ऐसा होता है ?
दादाश्री : ना, दृष्टि में फर्क नहीं है लेकिन उसे भान ही नहीं है कि यह मेरे कर्म के उदय का फल है । वह तो प्रत्यक्ष को ही देखती है, निमित्त को ही काटने दौड़ती है । सास तो निमित्त है, उसे काटने मत दौड़ना। निमित्त का तो बल्कि हमें उपकार मानना चाहिए कि उसने एक कर्म में से मुक्त करवाया हमें। एक कर्म में से मुक्त होना हो तो किस प्रकार मुक्त हुआ जाएगा? कोई जेब काट गया और जेब काटनेवाले व्यक्ति को हम निर्दोष देखें, या फिर सास गालियाँ दे रही हो या अपने ऊपर अँगारे डाले हों, उस घड़ी हमें सास निर्दोष दिखे, तब आप समझना कि 'इस कर्म से मुक्ति हो गई,' वर्ना कर्म मुक्त नहीं हुआ है। कर्म से मुक्ति नहीं हुई, और उससे पहले तो सास के दोष देख लेती है, इससे वापस दूसरे नये कर्म बढ़े ! कर्म बढ़ते हैं और फिर उलझ जाते हैं, इंसान उलझ जाए तो फिर उलझन में से कैसे निकलेगा ? उलझ जाता है। पूरे दिन उलझन ही उलझन में, उलझन ही उलझन में !
इन जानवरों को उलझन नहीं रहती । मनुष्यों को ही उलझन रहती है। क्योंकि वे लोग नयी नयी उलझनें डालते रहते हैं । जानवर तो, कोई