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आप्तवाणी-२
तो विशेषण है, और हम निर्विशेष शुद्धात्मा ! शुद्धात्मा को विशेषण नहीं होता। इस विशेषण से ही जगत् उत्पन्न हुआ है । 'शुद्धात्मा' को विशेषण नहीं होता इसीलिए 'हमारा' पूरा पद ' निर्विशेष' है।
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ये हमें भगवान कहते हैं, वह तो हमारी मज़ाक उड़ाने जैसा है। कोई बाहर साधु हो और खुद को एक भी कलुषित भाव नहीं हो और खुद के निमित्त से दूसरों को भी कलुषित भाव उत्पन्न नहीं हो तो उसे भी भगवान पद प्राप्त होता है । तो 'हमें' भी भगवान कहा? लेकिन यह तो निर्विशेष पद है! इस पर विशेषण लागू ही नहीं होता। शास्त्रों में यह पद नहीं होता। इसलिए किसी को विशेषण में नहीं पड़ना है । 'हमारा' विशेषण है ही नहीं। भगवान, वह तो विशेषण है, नाम नहीं है । कोई बी. एस. सी. हो जाए तो उसे ग्रेजुएट कहते हैं । फिर वह उससे आगे दस साल तक पढ़ाई करे तब भी उसे हम ग्रेजुएट कहें तो कैसा हीन लगेगा? 'ज्ञानीपुरुषों' को भगवान कहना, वह तो हीनपद में कहने के बराबर है । 'भगवान' पद तो 'ज्ञानीपुरुष' के लिए हीनपद है। 'ज्ञानीपुरुष' तो आश्चर्य कहलाते हैं ! वे तो निर्विशेष होते हैं । लेकिन लोग पहचानें किस तरह? इसलिए भगवान कहना पड़ता है। भगवान तो 'भग्' धातु पर से बना हुआ शब्द है। 'भग्’ पर से भगवान। जैसे 'भाग्य' पर से भाग्यवान बनता है, वैसे ही जिसने भगवत् गुण प्राप्त किए हों, वे भगवान कहलाते हैं । 'ज्ञानीपुरुष' तो उससे भी बहुत आगे पहुँचे हुए होते हैं। उससे आगे कुछ भी बाकी नहीं बचता। हमारी मात्र चार डिग्री बाकी बची हैं। भगवान महावीर की ३६० डिग्री पूरी हो गई थीं और हमारा केवलज्ञान ३५६ डिग्री पर अटका हुआ है, वह भी इस काल की विचित्रता के कारण ! लेकिन आपको यदि चाहिए तो हम आपको संपूर्ण ३६० डिग्री का केवलज्ञान घंटे भर में दे सकते हैं, ऐसा है, आपकी तैयारी चाहिए । लेकिन इस काल की विचित्रता है, इसलिए वह आपको पूरा-पूरा पचेगा नहीं । हमें ही ३५६ डिग्री पर आकर खड़ा रह गया है न! लेकिन भीतर तो उसका संपूर्ण सुख हमें बरतता है ।
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जैसा किसी भी काल में धर्म के लिए आया ही नहीं था, वैसा काल आज आया है। भगवान महावीर के बाद के २५०० साल अब पूरे हो रहे