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आप्तवाणी-२
यदि तुझ में दोष नहीं हैं तो 'मैं दोष का भाजन हूँ,' ऐसा मत बोलना, नहीं तो वैसा बन जाएगा और अनंत दोष हैं तो वैसा स्पष्ट रूप से बोल दे कि मुझ में अनंत दोष हैं। लेकिन जिनालय से बाहर निकलने के बाद सेठ से पूछे तो कहेगा कि एक-दो ही दोष होंगे। ज़रा सा क्रोध, ज़रा सा लोभ, बस इतना ही है। तब फिर दोष भी जान जाते हैं कि भाई कपट कर रहे हैं, उससे फिर दोष भी खड़े ही रहते हैं।
सबसे बड़ी भूल, वह स्वच्छंद है। स्वच्छंद से तो पूरा लश्कर खड़ा है। स्वच्छंद, वही बड़ी भूल है। यानी ज़रा सा ऐसा कहा कि, 'उसमें क्या हुआ?' तो हो गया। वह फिर अनंत जन्म बिगाड़ देता है।
'ज्ञानीपुरुष' की कृपा से, शक्ति से दोष दिखते हैं और मिट जाते हैं। किसी व्यक्ति को भूल रहित होना हो तो हम उससे कहते हैं कि केवल तीन ही साल तक क्रोध-मान-माया-लोभ को खुराक मत देना, तो वे सब मृतप्राय हो जाएँगे। भूलों को यदि तीन ही साल खुराक नहीं मिले तो वे घर बदल डालेंगी। दोष का मतलब ही है क्रोध-मान-माया-लोभ का पक्ष लेना, यदि तीन ही साल के लिए बिल्कुल भी पक्ष नहीं लिया तो वे भाग जाएँगे।
लोभी की प्रकृति लोभी यदि मार्केट में जाए तो उसकी दृष्टि सस्ती सब्जियों की ओर ही जाती है। भीतर लोभ क्या कहता है, कि, 'ये लोभी तो मुझे खिलाते हैं इसलिए यहीं पर मुकाम करो।' तब लोभी को क्या करना चाहिए कि जहाँ महँगी सब्जी मिल रही हो वहाँ पर जाना चाहिए और बिना मोलभाव किए सब्जी ले लेनी चाहिए। फिर भले ही डबल पैसे देने पड़ें। लोभ समझ जाएगा कि मुझे यहाँ खाने को नहीं मिल रहा है, उसके बाद फिर वह भागने लगेगा। हमारे यहाँ एक भाई आते थे। बड़े साहब थे। वे अच्छी तनख्वाह पाते थे। घर में पति-पत्नी बस दोनों ही थे। कोई बच्चा-बच्चा नहीं था उनका। एक दिन वे मुझसे कहने लगे, 'दादा, मेरा स्वभाव बड़ा कंजूस है, इसलिए मेरे हाथ से पैसा नहीं छूटता। मैं किसी की शादी में