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धर्मध्यान
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आर्त और रौद्रध्यान बंद हो जाएँ, तो नये कर्म बंधन रुक जाते हैं, लेकिन ऐसा हो पाए, वैसा है नहीं। वह तो हम ‘स्वरूपज्ञान' देते हैं उसके बाद ही बाहर धर्मध्यान शुरू हो जाता है और भीतर शुक्लध्यान बरतता है एवं आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद हो जाते हैं। यह अक्रम मार्ग है इसलिए बाह्य क्रिया मिथ्यात्वी जैसी, वैसी की वैसी ही रहती है, लेकिन ध्यान पूरा बदल जाता है!
भगवान ने कहा है धर्मध्यान हो तो भी निष्क्लेश रहेगा, क्लेश नहीं होगा। पैसे भले ही कम-ज़्यादा हों लेकिन निष्क्लेश होना चाहिए। ऐसा क्लेश रहित घर ढूँढना मुश्किल है। मतभेद को क्लेश कहते हैं। और जहाँ क्लेश हैं, वहाँ संसार खड़ा है। जिसका क्लेश मिटा, वह भगवान पद में आ गया कहलाएगा।
छोटे प्रकार के क्लेश होते हैं और फिर उनका बड़ा स्वरूप हो जाता है। इस मतभेद में और क्लेश में महामुश्किल से मिला हुआ मनुष्य जन्म व्यर्थ चला जाता है। जितना टाइम क्लेश करे उतना टाइम वह जानवर की गति बाँधता है! सज्जनता में जानवर योनि नहीं बंधती।
'कलुषित भाव' के अभाव से भगवान पद
प्रश्नकर्ता : हमें नहीं करना हो तब भी सामनेवाला आकर क्लेश कर जाए तो?
दादाश्री : हाँ, इसी का नाम जगत् न? इसलिए ही कहा है न कि, ऐसी 'गुफा' ढूँढ ले कि जिसे किसीने जाना ही नहीं हो और तुझे कोई पहचान ही नहीं सके, ऐसी 'गुफा' ढूँढ। यह तो चाहे कहीं से भी तुझे ढूँढकर लोग क्लेश करवाएँगे, नहीं तो रात में दो मच्छर आकर भी क्लेश करवाएँगे! चैन से नहीं बैठने देंगे। यानी कि मनुष्यगति में आने के बाद अधोगति में नहीं जाना हो तो क्लेश मत होने देना। तेरा क्लेश मिटने के बाद तू दूसरों का क्लेश मिटा सकेगा, तब तू लोकपूज्य पद में आ गया, ऐसा कहा जाएगा!
आत्मा तो खुद परमात्मा ही है। इसलिए पूज्य है, लोकपूज्य है।