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आप्तवाणी-२
सारे जगत् में सभी साधु-सन्यासियों के पास नियम हैं। उसमें ऐसे बैठना और वैसे करना। वे लॉज़ तो संकल्प-विकल्प खड़े करते हैं, जबकि आत्मा सहज है। नियम, वह बंधन है। संघ में नियम रखते हैं, और नियम, वही बंधन है। वह तो जो यम में से नियम में आएँ, उनके लिए है। यम मतलब फर्स्ट स्टेन्डर्ड और नियम मतलब सेकन्ड स्टेन्डर्ड। फर्स्ट में से सेकन्ड में आएँ, उनके लिए नियम हैं। मोक्ष के लिए इसकी ज़रूरत नहीं है। मोक्ष के लिए तो आत्मा को सहज रूप से बरतने दो। सहज बरतने दो, तो सहज मोक्ष बरतेगा!
यहाँ धर्म में एक पैसे का भी व्यवहार नहीं होता। आरती के घी के लिए भी पैसे यहाँ नहीं लेते। पुस्तकें छापने के लिए पैसों की ज़रूरत है, वे यहाँ पर नहीं माँगे जाते। फिर भी किस तरह पैसों के बिना चल रहा है, वही आश्चर्य है। यदि धर्म में पैसों का लेन-देन किया तो माथापच्ची करने जैसा है। उसके लिए तो नियम चाहिए, ऑफिस चाहिए और अपार जंजाल चाहिए। यहाँ पर नियम नहीं है तो सब कितने शांति से बैठे हैं
और उपाश्रय में तो जब व्याख्यान सुनने आएँ तो हँसी-ठिठोली करते हैं। वहाँ नियम होता है कि 'शांति रखो,' फिर भी हँसी-ठिठोली!
इस दुषमकाल के लोग नियम के लिए नहीं हैं। इन्हें तो कंट्रोल किया कि मन और अधिक बिगड़ेगा! और एक नियम घुसा तो नियम की किताबें बनानी पड़ेंगी। नया कुछ हुआ तो नियम निकालो, नियम की पुरानी किताबें खोलो और जाँच करो।
नियमों में विवेक एक वृद्ध महाराज उपाश्रय में चतुर्मास करने गए थे। वे बेचारे बहुत वृद्ध और पैर से लँगड़ाते थे। उनसे चला ही नहीं जाता था। जब चातुर्मास पूरा हुआ तब उनसे कहा गया कि, 'आप अब विहार कर जाइए।' महाराज का पैर ठीक हुआ ही नहीं था, इसलिए उन्होंने ठहरने के लिए एक्स्टेन्शन माँगा। तब संघपति ने कहा कि, 'अधिक से अधिक जितना दिया जा सके उतना दे दिया है, अब आगे एक्स्टेन्शन नहीं मिलेगा।' अब