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आप्तवाणी-२
त्याग करवाती है, प्रकृति तप करवाती है, तब खुद अहंकार करता है कि, 'मैंने त्याग किया,' 'मैंने तप किया, 'मैंने सामायिक की,' जब तक 'खुद' पुरुष नहीं बन जाता, तब तक यह प्रकृति ही चलाती है। ये जो शास्त्र पढ़ते हैं, ध्यान करते हैं, सामायिक करते हैं, वह सब प्राकृत ज्ञान है, 'आत्मज्ञान' नहीं है। जगत् में सर्वत्र प्राकृतज्ञान है। ये बड़े-बड़े साधु, सन्यासी, आचार्यवाचार्य सभी प्राकृतज्ञान में हैं। उनके पास आत्मज्ञान की बात नहीं होती, वे जो कुछ जानते हैं वह प्राकृतज्ञान है, आत्मज्ञान नहीं जानते। यदि तुझे आत्मा चाहिए तो 'ज्ञानीपुरुष' के पास जा। ज्ञान तो 'ज्ञानीपुरुष' के पास ही होता है, और कहीं भी नहीं होता।
ये लोग तो प्रकृति के गुणों को छुड़वाते हैं। अरे! इसका कब पार आएगा? हम तो कहते हैं कि, अच्छी आदतों और बुरी आदतों से शुद्ध चेतन सर्वथा मुक्त ही है! हम सब तो इस दुकान में से उतर गए और कहा कि, 'यह दुकान मेरी नहीं है!' अगर दुकान में से एक-एक चीज़ खाली करें तो कब अंत आए? इसके बजाय तो 'नहीं है यह मेरी दुकान' करके निकल गए तो हो गया पूरा!
सहज प्रकृति - सहज आत्मस्वरूप
इस काल में प्रकृति सहज हो सके ऐसा नहीं है। इसलिए 'हम' सहज आत्मा दे देते हैं और साथ-साथ प्रकृति की सहजता का ज्ञान दे देते हैं। फिर प्रकृति सहज करनी बाकी रहती है। आत्मा सहज स्वभाव में आ जाए, तब प्रकृति सहज स्वभाव में आ जाती है, ऐसा इस काल में है।
इन गुलाब के फूल को क्या निकाल करना पड़ता है? ना, वह तो सहज स्वभाव में ही होता है। ये अकर्मी खुद ही असहज हो जाते हैं। सभी चीजें सहज स्वभाव की हैं, आत्मा भी सहज स्वभाव का है। सिर्फ मनुष्य की ही प्रकृति विकृत है। इसलिए आत्मा का भी ऐसा विकृत फोटो दिखता है। यानी खुद विकृत होता है, तब प्रकृति भी विकृत हो जाती है। इसलिए खुद को सहज होने की ज़रूरत है। लेकिन असहज हो जाता है! प्रकृति सो जाने को कहे, तब चोटी बाँधकर जागता है। अरे! सहज हो