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आप्तवाणी-२
है, इसीलिए हम प्रकृति को घोड़ा बनाएँ और हम उसके ऊपर सवार हो जाएँ। प्रकृति-घोड़ा नहीं चले न तो हंटर मारें, कहें कि 'चल,' तब फिर वह चलेगी। यह तो अनंत जन्मों की बुरी आदत पड़ी हुई है, अटकण (जो बंधनरूप हो जाए, आगे नहीं बढ़ने दे) पड़ी हुई है। इसलिए प्रकृति सवार हो बैठती है। लेकिन आत्मा वैसा नहीं है। यह तो, प्रकृति खुद कहती है कि, 'भगवान, आप ऊपर बैठिए।' लेकिन ऐसा समझ में नहीं आने के कारण प्रकृति को सिर पर चढ़ाते हैं।
रुपये दो हज़ार का विक्टोरिया गाड़ी का घोड़ा हो, लेकिन कब्र का हरा कपड़ा देखे कि रुक जाता है, वह अटकण है। ऐसे ही लोग अटकणवाले हो गए हैं। अटकण तो निकालनी पड़ेगी न?
प्रकृति को सवार नहीं होने देना है। प्रकृति को सवार होने देना, वह कोई तरीक़ा है? इसके बदले तो आराम से आप उस पर सवार हो जाओ न!
हमें कोई कहे कि चलो अंतिम स्टेशन पर, तो हम तैयार, और कहे कि चलो शादी में, तो भी हम तैयार। अपनी प्रकृति तैयार रहनी चाहिए। यह तो घंटे भर तक नक्की करता है कि नहीं करना यह काम। लेकिन बाद में यदि करना ही पड़े, तो इसके बजाय तो सरल बन जा न। यह 'व्यवस्थित' छोड़े ऐसा नहीं है। इसलिए सरल बन जा। कवि ने क्या कहा है कि,
'अटकण थी लटकण, लटकण थी भटकण,
भटकणनी छटकण पर छांटो चरण-रज कण।' 'यह' अटकण है। यदि ऐसा हम जान लें, तो फिर वह अटकण टूटती जाएगी। प्रकृति तो अद्भुत है! लेकिन भान नहीं रहा कि किस तरह काम निकालें। खुद प्रकृति स्वरूप हो गया! इसलिए यदि घोड़ा ऐसे भागे तो खुद को भी वैसे ही भागना पड़ता है। इसके बजाय तो प्रकृति पर लगाम डालकर आराम से घूमो न!
प्रकृति नियमवाली है। मन का स्वभाव अनियमवाला है। किसी की