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सहज प्राकृत शक्ति देवियाँ
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इन्कम टैक्स वगैरह सभी हमें भी हैं। हम कान्ट्रैक्ट का व्यवसाय करते हैं, फिर भी उसमें हम संपूर्ण वीतराग रहते हैं। ऐसे वीतराग कैसे रह पाते हैं? 'ज्ञान' से। अज्ञानता से लोग दुःखी हो रहे हैं। लक्ष्मी पापानुबंधी पुण्य से होती है, लेकिन विचार निरे पाप के ही होते हैं। लक्ष्मी पुण्यानुबंधी पुण्यवाले की दासी ज़रूर है, लेकिन उसे वह ऊँचे ले जाती है, और पापानुबंधी पुण्यवानों की भी लक्ष्मी दासी है, लेकिन वह उसे अधोगति में ले जाती है!
आजकल तो यह इंसान, इंसान ही नहीं रहा है न! और उनकी मौत तो देखो? कुत्ते की तरह मरते हैं। ये तो अणहक्क (बिना हक़वाले) के विषय भोगे हैं, उसका फल है। जिनके पास लक्ष्मी है, विपरीत बुद्धि की वजह से उन्हें भी अपार दुःख हैं। सम्यक् बुद्धि सुखी बनाती है।
सच्ची लक्ष्मी कब आती है कि आपके मन के भाव सुधरें, तब। इन व्यभिचारी विचारों से सच्ची लक्ष्मी तो कैसे आएगी? पापानुबंधी पुण्य की लक्ष्मी तो रोम-रोम में काटकर जाती है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन लोगों को अभी पैसों की ज़रूरत है न?
दादाश्री : हाँ, लेकिन क्या इस वजह से ऐसे पक्के दुर्ध्यान करने चाहिए? यह नहाना भी रोज़ की ज़रूरत है, फिर भी वहाँ क्यों नहाने के लिए ध्यान नहीं बिगाड़ते? अभी तो यदि पानी नहीं मिले तो उसमें भी ध्यान बिगड़ता है, लेकिन हमारे अंदर तो नक्की ही होना चाहिए कि पानी मिला तो नहाऊँगा, नहीं तो नहीं, लेकिन ध्यान नहीं बिगाड़ना चाहिए। पानी का स्वभाव है कि आता रहता है। वैसे ही लक्ष्मी का स्वभाव है कि आती रहती है, और टाइम हो जाए तब चलती बनती है। पूरे वर्ल्ड में किसी की, संडास जाने की सत्ता भी उसकी खुद की नहीं है। यह तो मात्र नैमित्तिक क्रिया करनी होती है। लेकिन वहाँ ध्यान बिगाड़कर छीन लेने की इच्छा रखे, तब तो फिर कैसे फल आएँगे?
एक व्यक्ति आम की आशा से पेड़ के नीचे बैठा। भगवान ने पूछा, 'अरे, तू क्यों पेड़ के नीचे बैठा है?' तब उसने कहा, 'आम खाने के लिए।'