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प्रकृति
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सभी में शक्तियाँ अलग-अलग होती हैं और कमियाँ भी अलगअलग होती हैं। सत्युग में कैसा था कि यदि घर में एक तीखी प्रकृति होती थी, तो घर के सभी लोग तीखे होते थे। अभी कलियुग में एक तीखा, दूसरा खट्टा और तीसरा कड़वा ऐसे अलग-अलग प्रकृति के व्यक्ति होते हैं, इसीलिए एडजस्टमेन्ट ही नहीं हो पाता। पति जल्दी उठे और पत्नी देर से उठे, तो फिर सुबह-सुबह ही कलह खड़ी हो जाती है। और इस तरह संसार खारा कर देते हैं। लेकिन यदि प्रकृति को एडजस्ट होना आ जाए, तो काम हो जाए।
_ 'पकौड़ी अच्छी बनी हैं,' ऐसा तो बोल सकते हैं, लेकिन नाटकीय भाषा में, वह भी सामनेवाले को अच्छा लगे इसलिए कहना है। कढ़ी खारी बनी हो, लेकिन ऐसा कहें कि, 'खारी हो गई है तो सामनेवाले के अहम् को ठेस लगती है। यदि कहना आए तो कहो, नहीं तो दूसरा रास्ता निकालो। धीरे से पानी डालकर कढ़ी पी लो। यह तो ज्ञान है, इसलिए जगत् जो दे, वह सब घोलकर पी लेना है। ऐसा है कि अंदर तो ग़ज़ब की शक्ति पड़ी हुई है। कढ़ी खारी हो तो प्रकृति तो खारी कढ़ी भी पी लेगी। 'हम सब' तो 'जाननेवाले' हैं। प्रकृति से बाहर कोई मनुष्य चल ही नहीं सकता। हमें 'ज्ञान' होने से पहले भी सारे एडजस्टमेन्ट्स का ज्ञान हाज़िर रहता था कि यहाँ क्या करने योग्य है। ऐसा ऑन द मोमेन्ट हाज़िर रहता था।
जगत् है, इसलिए सभी कुछ रहता है। कंकड़ अच्छे नहीं लगते हों तो क्या गेहूँ नहीं लाएँ? ना, वह तो गेहूँ लाने हैं और कंकड़ बीन लेने हैं। जहाँ पर प्रकृति को अंतराय होते हैं, वहाँ ऑब्स्ट्रक्ट(रुकावट) होती है। इसलिए प्रकृति को जहाँ-जहाँ अंतराय आएँ, वहाँ-वहाँ टॉर्च लाइट रखनी पड़ती है, और देख लेना है! खुद की भूलें तो सेन्ट परसेन्ट दिखनी चाहिए। महावीर भगवान भी मात्र खुद की ही प्रकृति को देखते रहते थे कि प्रकृति क्या-क्या करती है और क्या-क्या नहीं करती।
जो व्यवहार हमें एक बार भी नहीं करना हो फिर भी करना पड़े, तो जान लो कि, अपनी इच्छा नहीं हैं, फिर भी हो रहा है। यानी कि प्रकृति हम पर सवार होकर बैठी है। यह तो, प्रकृति को सवार नहीं होने देना