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आप्तवाणी-२
राज़ी होंगी? आज किसी का भी वचनबल किसलिए नहीं रहा? क्योंकि वाणी के नियमों का पालन नहीं किया है। मनुष्य में आने के बाद दो प्रकार के बलों की ज़रूरत है - वचनबल और मनोबल। देहबल, वह पाशवता में जाता है। वचनबल और मनोबल की शक्ति रिलेटिव आत्मा को बलवान करती है। अभी वचनबल तो लुप्त हो गया है और मन तो फ्रेक्चर हो गया है। आजकल वचनबल कैसे होते हैं? बाप बेटे से कहे कि, भाई, ज़रा खड़ा हो तो।' तब बेटा आड़ा होकर सो जाता है! खुद का बेटा ही नहीं मानता! यह वचनबल किस तरह चला गया? वाणी का गलत, उल्टा उपयोग किया, उससे। वाणी का किसी भी प्रकार का अपव्यय नहीं हो, वाणी को किसी भी विभाविक स्वरूप में नहीं ले जाए तो वचनबल उत्पन्न होगा।
झूठ बोले, प्रपंच करे, वह सब वाणी का अपव्यय कहलाता है। वाणी के दुर्व्यय और अपव्यय में बहुत फर्क है। अपव्यय मतलब सभी प्रकार से नालायक, सभी प्रकार से दुरुपयोग करते हैं। वकील दो रुपये के लिए झूठ बोलते हैं कि, 'हाँ, मैं इन्हें पहचानता हूँ,' वह अपव्यय कहलाता है।
वाणी से कितनों को डराया, कुत्तों को डराया, झूठ बोले, प्रपंच किए, वह वाणी का दुरुपयोग किया कहलाता है। उससे वचनबल टूट जाता है। सिर्फ सत्य ही बोलो और फिर सत्य का आग्रह पकड़कर नहीं रखो तो वचनबल फिर से उत्पन्न हो जाता है। यदि चीज़ का दुरुपयोग होता है तो उसका वचनबल उतर जाता है। झूठ बोलकर, खुद का स्व-बचाव करे, उससे तो मन, वाणी सबकुछ फ्रेक्चर हो जाता है। सत्य बोले लेकिन उसके पीछे भावना कैसी ज़बरदस्त होनी चाहिए? इन 'दादा' जैसा वचनबल होना चाहिए। 'उठो' कहे तो उठ जाए। हमारा वचनबल तो ग़ज़ब का है! हमारे शब्द कैसे होते हैं? ये शास्त्रों के शब्द नहीं हैं। शास्त्रों के शब्द तो जड़
और चोट लगे वैसे होते हैं और हमारे प्रत्यक्ष चेतन शब्द से तो भीतर 'ज्ञान' हाज़िर हो ही जाता है ! आत्मा ही प्रकट हो जाता है ! और फिर ज़रा सी भी चोट नहीं लगती। 'हमारी' वाणी से बिल्कुल भी अजीर्ण नहीं होता है। 'यह' तो पूरा ‘ज्ञानार्क' है! यह पच जाता है और अजीर्ण नहीं होता! 'ज्ञानीपुरुष' का एक भी वचन वृथा नहीं जाता! ग़ज़ब का, ज़बरदस्त