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आप्तवाणी-२
शुद्ध करना है कि मान दे तो भी छूए नहीं। जब अहंकार इतना शुद्ध हो जाए तब आत्मा प्राप्त होता है। अहंकार शुद्ध करते-करते इतना अधिक शुद्ध हो जाता है कि शुद्ध अहंकार और शुद्ध आत्मा दोनों एकाकार हो जाते हैं ! मान और अहंकार ये दो अलग चीजें हैं। स्वक्षेत्र में, 'खुद' जहाँ है खुद को वहाँ माने, वह अहंकार नहीं है। जहाँ खुद का अस्तित्व नहीं है वहाँ 'मैं हूँ' मानना, वह अहंकार कहलाता है। जब क्रोध-मान-मायालोभ एक भी नहीं रहे, तब अहंकार संपूर्ण शुद्ध हो जाता है। 'क्रमिक' में त्याग करते-करते अगले पद का उपादान करते हैं और पिछले पद का त्याग करते जाते हैं। क्रमिक में ये दोनों साथ में ही रहते हैं और त्याग करे तब भी वापस अहंकार तो रहता ही है! और फिर मैंने त्याग किया,' उसका कैफ़ चढता है। पूरा जगत् जिस मार्ग पर चला है, वह 'क्रमिक मार्ग' है। स्टेप बाय स्टेप जाना है उसमें, और उसमें कुछ छोड़ते जाना और कुछ ग्रहण करना होता है। और उसमें कोई कुसंग मिले तो केन्टीन में ले जाएगा और कहेगा, 'चलो, मैं पैसे खर्च करूँगा।' वह खद के पैसे खर्च करके केन्टीन में ले जाता है! ऐसा जोखिमवाला है 'क्रमिक मार्ग'। इसीलिए तो यह अनंत जन्मों से भटक मरे हैं!
हम यहाँ सभी महात्माओं में अहंकार देखते हैं, लेकिन वह ड्रामेटिक होता है, क्योंकि 'फाइलें' रही हैं, उनका निकाल करना पड़ता है। इसलिए चंदूलाल का ड्रामा रहा। नफा हो तो असर नहीं और नुकसान हो तब भी असर नहीं। मात्र चंदूलाल का नाटक समभाव से पूरा करके छूट जाना है।
'क्रमिक मार्ग' में आरंभ और परिग्रह, अहंकार और ममता कम करते-करते जाना होता है। त्याग करें, तब परिग्रह कम होता है और उससे ममता कम होती है। ऐसे आगे बढ़ते जाना और अंत तक यदि कुसंग प्राप्त नहीं हो तो ठेठ तक पहुँच जाता है ! नहीं तो एक ही कुसंग फिर कितनी ही सीढ़ियाँ उतार देता है ! 'क्रमिक मार्ग में तो अंतिम जन्म तक आरंभपरिग्रह रहता है, लेकिन जितना आरंभ-परिग्रह कम होता जाए उतने अंशों में क्रोध-मान-माया-लोभ कम होते जाते हैं। फिर भी, अंदर बेचैनी रहा करती है, ठेठ तक रहा करती है। और 'अक्रम मार्ग' में क्रोध-मान-माया