________________
आप्तवाणी-२
सन्यासियों को खुमारी चढ़ती है, वह तो रोग, 'क्रोनिक रोग' कहलाता है । ऐसे कष्टसाध्य रोग की दवाइयाँ नहीं होतीं । यह तो हमें कड़क शब्दों से ऑपरेशन करना पड़ता है । यहाँ किसी को बुरा नहीं लगता, क्योंकि सभी समभाव से निकाल करनेवाले महात्मा हैं और दस-बारह सालों से ये महात्मा यहाँ हैं। लेकिन सभी का एक ही मत और एक ही अभिप्राय । कभी भी मतभेद ही नहीं । यात्रा में जाएँ, तब भी एक भी मतभेद नहीं । विभक्त नहीं, अविभक्त! 'हम' औरंगाबाद सत्संग के लिए जाते हैं, तब एक ही मकान में अस्सी से सौ लोग होते हैं, फिर भी किसी की एक आवाज़ तक नहीं होती । एक मतभेद नहीं होता। सभी साथ में खाते-पीते हैं, लेकिन किसी को पता नहीं चलता कि घर में कितने लोग हैं ! और चलता है बढ़िया, रेग्युलर । ऐसा तो देखा ही नहीं होता न! वर्ल्ड में किसी जगह पर ऐसा देखने का स्थान ही नहीं मिलेगा ! ऐसा स्थूलभाव से देखने को मिले तो भी कल्याण हो जाए। और वापस एक भी लॉ (नियम) नहीं । जहाँ लाँ है वहाँ ‘वीतरागी ज्ञान' नहीं होता। जहाँ लॉ है वहाँ संपूर्ण वीतरागी ज्ञान नहीं होता, फिर भी यहाँ पर सबकुछ संपूर्ण विनय के साथ चलता रहता है। जिसे पैसे खर्च करने हों वह खर्च करता है, फिर भी किसी को ऐसा नहीं लगता कि यह बड़ा है और यह छोटा है। सभी को समानता रहती है। यह तो ग़ज़ब का मार्ग है, आश्चर्य मार्ग है, इसलिए काम निकाल लेना है। यहाँ दस सालों से हमारी वाणी का लेखन होता है । फिर भी न तो ऑफिस है, न ही सेक्रेटरी है और न ही नियम है । भले कहीं भी बोला गया हो, लेकिन लिख लिया जाता है और फिर सब ठिकाने पर ही रहता है । जबकि ऑफिसवालों के काग़ज तो तितर-बितर रहते हैं ।
६०
'क्रमिक मार्ग' के ज्ञानियों का नियम ऐसा होता है कि ज्ञानी ८० प्रतिशत तक पहुँचे हुए हों तो वे ७८ प्रतिशत ज्ञानी के पास पैर छूने नहीं जाते, ८२ प्रतिशतवाले के पास ही जाते हैं। जबकि 'अक्रम मार्ग' के ज्ञानी का कैसा है? 'हम' सौ प्रतिशतवाले हैं, फिर भी पाँच प्रतिशतवाले के पास जाकर हम पैर छूते हैं। जिसका कैफ़ उतर गया है, उसे क्या आपत्ति होगी। हमें तो आत्मा की ही दृष्टि होती है । हम कम प्रतिशतवालों के पैर क्यों छूते हैं? उसे सयाना बनाने के लिए कि, 'महाराज, यह आपका सही नहीं