________________
आप्तवाणी-२
हो, ऐसा रियल मार्ग है। जगत् में रिलेटिव मार्ग चलते हैं। जहाँ खुद नहीं, वहाँ पोतापणा (मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन) का आरोपण करना, खुद चंदूलाल है, ऐसा मानकर शुभाशुभ के मार्ग पर चलना, फिर भले ही सारी ज़िंदगी सब को ओब्लाइज़ करे, लेकिन उसे, रिलेटिव धर्म को प्राप्त किया, ऐसा कहा जाएगा । और मात्र एक ही क्षण यदि रियल धर्म का पालन किया, तब तो मोक्ष है ! भगवान ने कहा है कि 'एक बार आत्मा होकर आत्मा बोलो तो काम हो जाएगा,' नहीं तो 'मैं आत्मा हूँ, और देहादि जंजाल मेरे नहीं हैं, ' ऐसे लाख जन्मों तक बोले फिर भी कुछ नहीं होगा! भगवान क्या कहते हैं? तेरी श्रद्धा में भी यही है कि 'मैं चंदूलाल हूँ।' वह श्रद्धा नहीं टूटी है, वह ज्ञान नहीं टूटा, वह चारित्र भी नहीं टूटा। और फिर बोले कि ‘मैं शुद्धात्मा हूँ,' तब तो कभी भी मोक्ष नहीं होगा। ‘मैं चंदूलाल हूँ!' उस आरोपित भाव में रहकर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा किस तरह बोल सकते हैं? ज्ञान दर्शन के आरोपित भाव टूटते हैं, तब सम्यक् भाव में आता है, तो मोक्ष होता है ।
१२
रिलेटिव धर्म क्या कहते हैं? अच्छा करो और बुरा मत करना । अच्छा करने से पुण्य बंधते हैं और बुरा करने से पाप बंधते हैं। सारी ज़िंदगी का खाता सिर्फ पुण्य से ही नहीं भरता । किसी को गाली दी तो पाँच रुपये उधार चढ़ जाते हैं और धर्म किया तो सौ रुपये जमा होते हैं। पाप-पुण्य का जोड़-बाकी नहीं होता । यदि ऐसा हो सकता तब तो ये करोड़पति लोग पाप जमा ही नहीं होने देते । पैसा खर्च करके उधारी उड़ा देते। लेकिन यह तो असल न्याय है। उसमें तो जिस समय जिसका भी उदय आए, तब वह सहन करना पड़ता है । पुण्य से सुख मिलता है और पाप के फल का उदय आए तब कड़वा लगता है। फल तो दोनों ही चखने पड़ते हैं। भगवान क्या कहते हैं कि तुझे यदि फल चखना पुसाता हो उसका बीज बोना। सुख पुसाता हो तो पुण्य का और दुःख पुसाता हो तो पाप का बीज बोना। लेकिन दोनों रिलेटिव धर्म ही हैं, रियल नहीं । रियल धर्म में, आत्मधर्म में तो पुण्य और पाप दोनों से मुक्ति चाहिए । रिलेटिव धर्मों से भौतिक सुख मिलते हैं और मोक्ष की तरफ प्रयाण होता है। जबकि रियल धर्म से मोक्ष मिलता है । यहाँ 'हमारे' पास रियल धर्म है। उससे सीधा