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मूर्तिधर्म : अमूर्तधर्म
भगवान ने कहा है कि जब तक आर्तध्यान और रौद्रध्यान हों, तब तक मूर्ति के दर्शन करना । क्योंकि तब तक अमूर्त के दर्शन नहीं हो सकतें। जो अमूर्त हैं, ऐसे भगवान के दर्शन, शुद्धात्मा के दर्शन नहीं हो पाते।
प्रश्नकर्ता : यह मूर्ति तो पत्थर है, उसके दर्शन से क्या मिलेगा?
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दादाश्री : लेकिन वह दूसरे लोगों के लिए काम की हैं न? भगवान एकांतिक दृष्टि नहीं रखने को कहा है। सामुदायिक दृष्टि रखो। अनेकांत, मतलब छोटा बच्चा नंगा फिर रहा हो तो उसे कोई नहीं डाँटता, उसे कोई उलाहना नहीं देता लेकिन अगर पचास साल का आदमी नंगा घूम रहा हो तो उसे उलाहना देते हैं । तब अगर वह पचास सालवाला कहे कि 'मुझे क्यों उलाहना दे रहे हो? इस छोटे बच्चे को क्यों नहीं देते?' तब हम उसे कहें कि, 'अरे भाई, तेरी उमर ज़्यादा हो गई है । इस छोटे बच्चे की उमर के अनुसार उसका धर्म ठीक है और तेरी उमर के अनुसार तेरा धर्म गलत है।' इस तरह सभी को सामुदायिक तरीके से देखना ज़रूरी है।
कबीर साहब मुस्लिम मोहल्ले में मस्जिद के पास ही रहते थे। वे लोग बाँग लगाते थे, वे लोग कान में उँगली डालकर पुकारते हैं या नहीं? उसे क्या कहा जाता है ? अज़ान । अब उस अज़ान के लिए कबीर साहब ने, वे तो बहुत जाग्रत इंसान थे, उन्होंने कहा, 'अल्लाह कोई बहरे थोड़े ही हैं, जो इतनी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हो? वह सब सुनता है, वह तो, अगर चींटी के पाँव में झांझर लगा दो, तो वह भी सुन लेगा, तो फिर आप क्यों इतना ज़ोर से चिल्लाते हो? हमारे कानों को बहुत खराब लगता है।' 'हमारे भगवान की, हमारे धर्म की टीका करता है?' ऐसा कहकर मुस्लिम लोगों ने कबीरसाहब को खूब मारा ।
अब कबीरसाहब ने मुझे पूछा होता कि, 'ये तो गलत कर रहें हैं फिर भी मुझे मारा।' तो मैं कहता, 'ये जो करते हैं, वह ठीक है। भूल आपकी है। सामनेवाले के व्यू पोइन्ट को जानकर बोलो। सामनेवाले का व्यू पोइन्ट जाने बिना बोलना और सब को खुद की एक सरीखी दृष्टि से नापना भयंकर गुनाह है। खुद की एक सरीखी दृष्टि से यानी जैसी मेरी दृष्टि है वैसी ही इनकी होगी, ऐसा मानना, वह सब गुनाह कहलाता है ।' फिर कबीरसाहब को मैं