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आप्तवाणी-२
समझाता कि, 'ये लोग जितना ज़ोर से बोलेंगे उतना ही अंदर पर्दा टूटेगा और तब अंदर अल्लाह सुनेंगे। उनकी इतनी बड़ी मोटी परत, आवरण होता है,
और आपकी परत है, वह कपडे जैसी पतली है। इसलिए आप मन में बात करोगे, तब भी उनको पहुँच जाएगी और इन लोगों के आवरण तो मोटे हैं, इसलिए हुँकारकर जितना ज़ोर से बोला जा सके, उन्हें तो उतना बोलना चाहिए। यह सब उनके लिए ठीक है, करेक्ट है। अब ऐसा अज़ान क्राइस्ट के भक्त लगाएँ तो उनका बिगड़ जाएगा। उन्हें तो बिल्कुल शांति चाहिए। बोलना ही नहीं, शब्द ही नहीं। हर एक की भाषा में अलग-अलग है। यानी वे उनकी भाषा में बात कर रहे हों, और उन्हें हम कहें तो कबीरसाहब जैसी दशा हो जाए। जो अनेकांत को नहीं समझते, वे कबीरसाहब की तरह मार खाते हैं। खुद, खुद की भूलों की मार खाते हैं।
कबीरसाहब बहुत जाग्रत इंसान थे। भक्त तो बहुत सारे हो गए, उनने भी कबीर जी बहुत-बहुत जाग्रत थे। ऐसे पाँच-सात भक्त हो चुके हैं कि जो बहुत जाग्रत थे, अत्यंत जाग्रत। उन्हें मात्र मोक्षमार्ग नहीं मिलने के कारण अटका हुआ था। उन्हें मार्ग नहीं मिला था। उन्हें यदि मार्ग मिल गया होता तो बहुत कुछ काम निकाल लेते, ऐसे थे वे!
कबीरसाहब के समय में ब्राह्मण गाँव में यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में बलि देने के लिए बड़ा बकरा लाकर खड़ा किया था। कबीर जी ने यह देखकर ब्राह्मणों से कहा, 'आपने यह बकरा यहाँ पर क्यों खड़ा रखा है?' तब ब्राह्मणों ने कबीर जी से कहा, 'तू क्यों यहाँ आया है? चला जा यहाँ से। तुझे इससे क्या मतलब है?' तब कबीर जी समझ गए और बोले, 'यह बकरा जीवित है, अच्छा है। इसे किसलिए आप यज्ञ में होम रहे हो? इसे कितना अधिक दुःख होगा?' तब ब्राह्मणों ने कहा, 'इसे यज्ञ में होम देंगे, तो उससे इसे स्वर्ग मिलेगा।' तब कबीर जी फट से बोले, 'इस बकरे को क्यों स्वर्ग में भेज रहे हो? इसके बदले तो आपके पिता जी बूढ़े हो गए हैं, उन्हें यज्ञ में होम दो न ताकि उन्हें स्वर्ग मिले!' अब यह कैसा सिर घुमा दे ऐसा वाक्य है! उन ब्राह्मणों ने खूब मारा उन्हें, यानी हर कहीं पर मार खाते थे। जो भगवान का अनेकांत समझे बिना बोले,