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संसार स्वरूप : वैराग्य स्वरूप
सुखी है। लेकिन कोई सुखी नहीं है। शक्करकंद भट्ठी में भूने जा रहे हों, वैसे सब भुन रहे हैं। इस सेठानी का बीमा भी नहीं है और कितने ही बंगले खत्म हो गए। किसमें सुख है? लक्ष्मी में सुख होता, तब तो ये सेठ रात में सोते-सोते करवटें नहीं बदलते। लेकिन यह तो पलंग भी चूँचूँ करते हैं ! इसमें क्या सुख है? चक्रवर्तियों की भी तैरह सौ रानियाँ होती थीं, उनमें से कइयों के मुँह चढ़े हुए होते थे रोज़!
एक बनियाभाई थे, रोज़ मेरे साथ उठने-बैठनेवाले। उनसे मैंने पूछा, 'क्यों कैसा चल रहा है आपका पत्नी के साथ? यदि पत्नी मर जाए तो क्या होगा आपका?'
तब उन्होंने कहा, 'मैंने तो मेरी पत्नी से कह दिया है कि मैं विधुर हो जाऊँगा, लेकिन तुझे विधवा नहीं होने दूंगा।' धत् तेरे की! 'ये बनिये तो बहुत पक्के। इससे तो पत्नी को अच्छा लगे और पति अधिक जीए! स्त्री से कहता है कि, 'तू सौभाग्यवती होकर जाना, लेकिन मैं तो विधुर होऊँगा।' यह तो पुरुषों के बनाए हए नियम हैं और इस कारण से पक्षपातवाले नियम होते हैं। स्त्री और पुरुष में जो नैचुरल भेद है, वही भेद। बाकी तो वह भी 'शुद्धात्मा' ही है न?
एक बनियाभाई तो ऐसे शूरवीर थे, कि मोहल्ले के नुक्कड़ पर चोरियाँ हो रही थीं और वहाँ शोर मच रहा था। उन्हें पता चला कि चोर मुहल्ले में आए हैं, इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि, 'तू मुझे गद्दे ओढ़ा दे!' ऐसे शूरवीर लोग हैं।
शादी की, शादी के फल चखे, अब 'वीतराग' रहना है। यह तो आम के फल चखे कि खट्टे हैं तो फिर हमेशा के लिए नीचे बैठे रहना है कि अगले साल आम मीठा होगा? ना, वह तो हमेशा के लिए खट्टा ही रहेगा। ऐसे ही यह संसार, वह खट्टा ही है, लेकिन मोह के कारण भूल जाता है। मार खाने के बाद वापस मोह चढ़ जाता है। वही भूलभुलैया है। यदि स्वरूप अज्ञान गया और 'स्वरूपज्ञान' मिल जाए तो वह भूल-भुलैया परेशान नहीं करती। 'ज्ञानीपुरुष' आत्मज्ञान दे दें, तब फिर भूल-भुलैया से छूटते हैं और मोक्ष का सिक्का लग जाता है!