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सत्देव : सद्गुरु : सत्धर्म
दादाश्री : हाँ, मूर्ति की स्थापना यानी आरोपित भाव। यानी हम आरोपित, वे भी आरोपित और धर्म भी आरोपित! तीनों आरोपित। अपने यहाँ आत्मा, वह, दरअसल सत्देव है। 'ज्ञानीपुरुष' की जो वाणी निकली है, वह दरअसल सत्धर्म है और 'ज्ञानीपुरुष,' वे दरअसल सद्गुरु हैं। ये तीनों दरअसल कहलाते हैं जबकि वे तीनों लौकिक कहलाते हैं ! लौकिक का फल क्या है? तो कहते हैं, पुण्य बंधता है और धीरे-धीरे आगे बढ़ता हैं, जबकि यह दरअसल चीज़, अलौकिक सत्देव, सद्गुरु और सत्धर्म, वे मोक्ष देते हैं। वर्ना सतदेव मिलने के बाद भटकना क्यों पड़े? तब फिर हकीकत क्या है? तो कहते हैं, 'सत्देव मिले हैं, लेकिन वे आरोपित मिले हैं, सच्चे नहीं मिले हैं।' आरोपित का मतलब क्या कि महावीर हैं तो सही, लेकिन वे मूर्तिवाले, आरोपित हैं। जबकि सच्चे सत्देव तो जो भीतरवाले 'शुद्धात्मा' हैं, वे हैं। 'शुद्धात्मा' ही यथार्थ महावीर हैं, लेकिन 'शुद्धात्मा'
का लक्ष्य बैठने के बाद भी जब तक उसका अनुभव नहीं हुआ, तब तक 'ज्ञानीपुरुष' ही खुद का आत्मा है।
सत्धर्म, वह शास्त्र में से नहीं होना चाहिए, ज्ञानी के मुख से होना चाहिए। सत्धर्म, सत्देव और सद्गुरु, वे दरअसल होंगे, तभी मोक्ष होगा। लेकिन दरअसल नहीं मिलें तो नकली रखना। सच्चे मोती नहीं मिलें तो कल्चर्ड, लेकिन मोती पहन लेना! ।
वीतरागों ने सत्देव, सद्गुरु और सत्धर्म कहा है, इसलिए अपने आचार्य और महाराज वगैरह सब मान बैठे कि महावीर देव, वे ही सत्देव हैं और शास्त्रों के अनुसार जो भी करते हैं, वही सत्धर्म है। लेकिन यह समझ में नहीं आया कि मूर्ति तो आरोपित देव हैं, नहीं हैं वे सच्चे महावीर! और महाराज आप भी आरोपित हैं। यानी गुरु भी आरोपित, देव भी आरोपित और धर्म भी आरोपित! पुस्तक में लिखे जाने के बाद, वह आरोपित धर्म कहलाता है और 'ज्ञानीपुरुष' का सीधा सुने वह सत्धर्म कहलाता है। 'ज्ञानीपुरुष,' वे सद्गुरु कहलाते हैं और वे कैसे होते हैं? सामनेवाले को खुद का 'शुद्धात्मा' प्राप्त करवाएँ ऐसे होते हैं, और 'शुद्धात्मा,' वे सत्देव कहलाते हैं। और 'ज्ञानीपुरुष' के मुँह से जो वाक्य