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मूर्तिधर्म : अमूर्तधर्म प्रश्नकर्ता : आत्मा जगाने के लिए मूर्ति की ज़रूरत है क्या?
दादाश्री : मूर्ति की बहुत ज़रूरत है। भगवान ने साफ-साफ कहा है कि सत्देव, सत्धर्म और सद्गुरु की ज़रूरत है। लेकिन जब तक समकित नहीं हुआ है, सच्चे सत्देव, सत्धर्म और सद्गुरु प्राप्त नहीं हुए हैं, तब तक व्यवहार के देवताओं की ज़रूरत है। 'स्वरूपज्ञान होने के बाद निश्चय के देवता की ज़रूरत है। फिर कोई कहे कि देवता की जरूरत नहीं है तो वह नहीं चलेगा। व्यवहार के देवता मूर्ति स्वरूप से हैं, निश्चय के देवता अमूर्त हैं।
प्रश्नकर्ता : मूर्ति आत्मा का कल्याण नहीं कर सकती?
दादाश्री : जब तक आत्मा का भान नहीं हुआ है, तब तक मूर्ति के पीछे पड़ो, वह मूर्ति समकित तक ले जाएगी। मूर्ति का तिरस्कार मत करना, क्योंकि वीतरागों के नाम पर हैं। वहाँ वीतरागों की स्थापना हुई है और मूर्ति के पीछे शासन देवी-देवता रहे हुए हैं।
एक संप्रदाय के महाराज मिले थे। उनसे मैंने कहा, 'महाराज एक बात कहूँ? आपको पसंद आएगी? आपको नापसंद हो ऐसी बात कहूँ? आप त्यागी बन गए हैं तो नापसंद बात सुनने की शक्ति उत्पन्न हो चुकी है आप में?' तब महाराज ने कहा, 'कहो न बात? बात में क्या हर्ज है?' इसलिए फिर मैंने महाराज से कहा, 'महाराज यह मुँहपत्ती किसलिए रखी है? कषाय जाने के बाद की क्रिया है यह, और वह तो सहज क्रिया है।
और कषाय जाने के बाद ही आप मूर्ति छोड़ सकते हैं। आप मूर्ति को जड़ कहते हैं, उस मूर्ति को जड़ नहीं कहना चाहिए। आप सब भी जड़ ही हैं न? चेतन को जाना नहीं, चेतन को पहचानते नहीं, फिर बचा क्या?