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संसरण मार्ग संसार तो संसरण (प्रवाहित होता हुआ) मार्ग है। इसमें हर एक मील पर, हर एक फलांग पर रूप बदलते हैं। उन रूपों में मनुष्य को तन्मयता रहती है और इसलिए मार खाता रहता है। पूरा संसार सहजमार्गी है, मात्र मनुष्य के जन्म में ही मार खाता है। ये कौए, कबूतर, मछलियाँ इन सबके हैं कोई अस्पताल या फिर है उन्हें कुछ नहाना या धोना? फिर भी कैसे सुंदर दिखते हैं! उन्हें है कुछ संग्रह करने का? वे सब तो भगवान के आश्रित हैं। जबकि ये मनुष्य अकेले ही निराश्रित हैं। सभी, फिर वे साधु हों, सन्यासी हों या चाहे जो हों। जिसे कभी भी ऐसा हो कि मेरा क्या होगा, वे सभी निराश्रित ! जो भगवान पर आसरा नहीं रखें और संग्रह करें, वे सभी निराश्रित और इसीलिए तो चिंता-उपाधि हैं।
इस संसार में तो अनंत जन्म की भटकन है। किसी भी जीव को बंधन पसंद नहीं है। हर एक को मुक्ति की ही इच्छा रहा करती है, लेकिन मुक्ति का मार्ग नहीं मिले तो क्या करे? कौन से जन्म में साधु नहीं हुए थे? वैष्णव में जाएँ या जैन में जाएँ, वहाँ भी साधु बने और साधुपन से ऊब गए तब सोचते हैं कि इससे तो संसारी होता तो अच्छा था! तब अगले जन्म में संसारी बनता है और संसारी बने वहाँ बीवी-बच्चों से परेशान होकर वापस सोचता है कि इससे तो साधु हो जाना अच्छा! तो वह अगले जन्म में साधु बनता है। ऐसे ही अनंत जन्मों से भटकन चल रही है! लेकिन यदि स्वरूप का ज्ञान मिले तो मुक्ति मिल जाए। लेकिन 'ज्ञानीपुरुष' मिलें
और सारे पापों को वे भस्मीभूत कर दें, उसके बाद शुद्ध बनाएँ, तभी 'मैं शुद्धात्मा हूँ,' ऐसा बोल सकते हैं। यों ही शुद्धात्मा हुए बगैर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' नहीं बोल सकते, वह तो शब्दज्ञान कहलाता है, उससे बल्कि दोष लगेगा।