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रियल धर्म : रिलेटिव धर्म
कहा है कि खुद पक्ष में नहीं पड़े और सामनेवाला पक्ष डाल रहा हो तो उसके वहाँ जाए और उसे समझाए । खुद विस्तारपूर्वक सभी समझाकर मतभेद को टाले। सामनेवाले का बिल्कुल निरा झूठ हो और खुद बिल्कुल सच्चा हो, तब भी वह सामनेवाले के पास खुद जाए। कईयों को ऐसा लगता है कि 'ऐसा तो कहीं होता होगा? आप सच्चे हो फिर भी क्यों जा रहे हो?' फिर भी जैन धर्मवाला कहेगा, 'मैं जैन हूँ, इसलिए खुद मुझे ही जाना चाहिए।' जैन तो निराग्रही होते हैं । जैन तो किसे कहते हैं? वह ऐसा नहीं होता कि किसी की न सुनें । सबका सुनें और आवरण नहीं लाएँ । 'तेरा गलत और मेरा सही' ऐसे कपट का उपयोग न करें। यदि आत्मा कबूल करे ऐसी बात हो, तब तो सुननी चाहिए न ?
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महावीर भगवान कैसे थे कि अगर कोई विधर्मी बात सुनाने आए, तब भी सुनते थे। यह तो भगवान महावीर के ही धर्म के ही कितने ही पक्ष बन गए हैं!
आज तो साधु महाराज भी पक्ष में पड़ गए हैं ! संप्रदाय के साधुओं में और भगवान के, वीतराग के साधुओं में फर्क क्या है? संप्रदाय के साधु पक्षपातवाले होते हैं, झगड़ेवाले होते हैं, इन संसारियों में जैसे भाई-भाई झगड़े करते हैं, उसी तरह झगड़े करते हैं, जबकि वीतराग के साधु तो निष्पक्षपाती होते हैं, दख़ल ही नहीं होती । जो एक भी पक्ष में नहीं पड़े हैं, वीतराग के ऐसे साधुओं को अपने नमस्कार । फिर भले वे दिगंबर हों या श्वेतांबर हों। यह तो कैसा है कि एक संप्रदाय के महाराज की बात दूसरे संप्रदाय के लोग नहीं सुनते। ऐसे, पक्षपात से मोक्ष होता होगा? सही बात तो भले ही किसी के भी घर की हो, फिर भी स्वीकार करनी चाहिए । लेकिन आज सही बात रही ही कहाँ है?
भगवान को नग्न रखना या कपड़े पहनाना, इसके लिए कुछ संप्रदायों में झगड़े चले। नग्न रखने को कहा, वह किसलिए? भगवान की आँगी करना, वह तो बालधर्म है। जिससे कि भगवान की आँगी के नाम पर ही सही, भगवान के दर्शन तो करेगा न? जबकि आगे की बात तो ज्ञान-जीवों के लिए है। लेकिन आज कल तो बात ही बदल गई है ! एक