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संसार स्वरूप : वैराग्य स्वरूप
पूरा संसार दगा है। इसमें कोई अपना सगा नहीं है। ऐसे इस संसार की विकरालता यदि समझ में आ जाए तो मोक्ष की इच्छा तीव्र हो जाए । संसार की विकरालता, वह तो मोक्ष के लिए काउन्टर वेट है
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आज विकरालता लगती है, फिर भी मूढ़ वापस मूर्छा से मार खाता है। वापस लगता है कि ' होगा भाई, कल सुधर जाएँगे'। पीतल सुधरकर सोना बनेगा क्या? ना, वह तो कभी भी सोना नहीं बन सकता। इसलिए ऐसे संसार की विकरालता समझ लेनी है । यह तो ऐसा ही समझता है कि इसमें से मैं कुछ सुख ले आता हूँ । ऐसा करूँगा उससे कुछ सुख मिलेगा। लेकिन वहाँ भी मार खाता है ।
यदि ‘ज्ञानीपुरुष' इस संसार की विकरालता का मात्र वर्णन ही करें तो उसे हो ही जाता है कि, 'संसार ऐसा अति कठिन है? इसमें से तो छूटा जा सके ऐसा नहीं है । इसलिए यह पूरा केस ही एक तरफ रख दो।' 'हाँ बाप ! हाँ बाप !' करके हल लाना है। 'समभाव से निकाल' करने जैसा है जगत् !
यह हमारी झीनी बात है । मोटी बातों से तो संसार कायम है !
दही का बर्तन हो और उसका मुँह सँकरा हो और नीचे रखा हुआ हो, तब बिल्ली को उसकी सुगंध आती है। वह बर्तन हिलाकर दही खा जाती है। फिर थोड़ा दही अंदर रहा हो तो उसके लालच में बिल्ली मुँह ज़ोर से अंदर घुसा देती है, तब उसका मुँह अंदर फँस जाता है । फिर तो अंदर अंधेरा। तब बिल्ली इधर से दौड़ती है और उधर से दौड़ती है। अब ऐसे फँसाव में फँसने के बाद छूटे किस तरह? उसी तरह यह पूरा जगत् यों फँस गया है! अब खुद, खुद से छूटे किस तरह? बिल्ली को छूटना