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आप्तवाणी - २
है! बंधे हुए हों तो मुक्त हो पाएँ, ऐसा नहीं है और मुक्त हो चुके हों तो बाँधा जा सके, ऐसा नहीं है! यदि 'स्वरूप का ज्ञान' मिला हो, तो इस फँसाव में से छूटा जा सकता है !
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बचपन में मैंने अपनी नज़रों से देखा है, वह बताता हूँ आपको । एक अँधे वृद्ध थे, जब वे खाना खाते थे, तब बच्चे उनकी थाली में कंकड़ डाल आते थे। वे परेशान होकर चिढ़ते और चिल्लाते थे। तब वे बच्चे खुश हो जाते, फिर और ज़्यादा कंकड़ डालते ! ऐसा है यह जगत् ! और वापस ऐसे कितने जन्म होनेवाले हैं, उसका ठिकाना नहीं ! मोक्ष का सिक्का लग चुका हो तो शायद दो-तीन जन्मों में ठिकाना पड़ जाएगा। लेकिन ऐसा सिक्का नहीं लगा है, फिर भी लोगों को इस जगत् पर कितना मोह है !
बिल्ली लालच के मारे मुँह ज़ोर से बर्तन में डाल देती है, फिर निकल नहीं पाता! वह मुँह क्यों डालती है? स्वार्थ और लालच की वजह से ही न? वह स्वार्थ और लालच ही अज्ञान है ! इसलिए हमें क्या सीखने की ज़रूरत है कि,
हम कौन हैं?
इनसे हमें क्या लेना-देना है ?
ये मेरे बनेंगे या नहीं?
पैंसठ सालों से इन दाँतों को घिस रहे हैं, फिर भी वे साफ नहीं होते! तो क्या हमारी समझ में नहीं आना चाहिए कि चीज़ सच्ची है या झूठी ? सारी जिंदगी इस जीभ का मैल उतारा, फिर भी मुई साफ नहीं हुई। रोज़ दाँत की कितनी संभाल की, घिसते रहे फिर भी वह भी अंत में सगा तो नहीं ही हुआ न? आज यह दाढ़ दुःखने ही लगी न? ऐसा है यह जगत्। यह संसार है ही ऐसा कि खरे टाइम पर कोई सगा नहीं रहता। बहू रोज़ सास के पैर दबाती हो और एक दिन बहू के पेट में दुखे तो सास कहेगी कि अजवायन फाँक ले। ऐसा तो सब कहेंगे। पर क्या सास बहू का दुःख ले लेगी? अरे ! पति या बच्चों में से कोई ले लेगा? यह जगत् कैसा है कि जब तक यह बैल लंगड़ा नहीं हो जाए, तब तक