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रियल धर्म : रिलेटिव धर्म
ही रहते हैं। मैं जानता हूँ,' वे खुद की जोखिमदारी पर बोलते हैं न? अपनी जोखिमदारी थोड़े ही है उसमें! अपनी-अपनी जोखिमदारी पर बोल रहे हैं। सभी मार्ग भूल गए हैं, लेकिन क्या हो? इसमें उनका दोष नहीं है। उनकी इच्छा तो मोक्ष में जाने की ही है, भगवान की आज्ञा में रहने की ही है। लेकिन काल विचित्र आया है, इसलिए नासमझी से आँटी (गाँठ पड़ जाए उस तरह से उलझा हुआ) पड़ गई है। यह सारा प्राकृतज्ञान है। उससे कैफ़ बढ़ता जाता है जबकि आत्मज्ञान से कैफ़ उतर जाता है। इसलिए खुद को आत्मज्ञान नहीं है, ऐसा खुद को निरंतर भान रहे तो भी बहुत अच्छा। ये तो बल्कि खुद का कैफ़ ढंकते रहते हैं। कोई उकसाए तब फन फैलाते हैं वापस। जब कैफ़ रहित हो जाएगा, तब इस जगत् की मालिकी तेरी है। पूरे जगत् का मालिक तू है। पूरे ब्रह्मांड का स्वामी तू खुद ही है! इसलिए अगर ऐसा कहे कि आत्मज्ञान के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता,' तब भी जल्दी हल आ जाए!
क्या जाना हुआ प्रकृतिज्ञान काम में आता है? नहीं, क्योंकि मोक्ष में जाने के लिए तो आत्मज्ञान की ज़रूरत पड़ेगी। आत्मज्ञान पुस्तकों में नहीं होता, शास्त्रों में नहीं होता। वह तो 'ज्ञानीपुरुष' के पास है। जिन्हें वर्ल्ड में कुछ भी जानना बाकी नहीं रहा, उनका काम है, उसमें किसी और का काम नहीं है। 'ज्ञानीपुरुष' कौन? तो कहते हैं, जिन्हें कुछ भी जानना बाकी नहीं बचा होता, पुस्तक नहीं पढ़नी होती, माला नहीं फेरनी होती! यदि वे खुद पुस्तक पढ़ रहे हों, माला फेर रहे हों, तो हम नहीं समझ जाएँगे कि ये तो अभी स्टेन्डर्ड में हैं? खुद ही अभी अध्ययन कर रहे हैं, तो हमारे दिन क्या बदलेंगे? वे तो जो खुद संपूर्ण हो चुके हों, वे ही काम आते हैं। ये सब रिलेटिव धर्म हैं, वे सब स्टेन्डर्ड हैं। हर एक के डेवेलपमेन्ट के हिसाब से उसे उसके स्टेन्डर्ड का मिल जाता है। और रियल धर्म में, आत्मधर्म में तो आउट ऑफ स्टेन्डर्ड जाना पड़ेगा। सब स्टेन्डर्ड पास करके, सब स्टेन्डर्ड को मान्य करने के बाद ही खुद परमात्म-स्वरूप हो सकेगा!
पक्ष में पड़े हुओं का मोक्ष कहाँ से? जैन, वैष्णव, शैव, स्वामिनारायण, मुस्लिम, क्रिश्चियन, वे सारे