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रियल धर्म : रिलेटिव धर्म
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ही मोक्ष मिल जाता है। यहीं पर मोक्षसुख बरतता है। यहीं पर आधि, व्याधि
और उपाधि (बाहर से आनेवाला दुःख) से मुक्ति मिल जाती है और निरंतर समाधि रहा करती है, निराकुलता उत्पन्न होती है। यहाँ तो आत्मा और परमात्मा की बातें होती हैं।
पुरुष हुए बिना पुरुषार्थ क्या? __एक बड़े प्रोफेसर मेरे पास आए थे। उन्हें मन में जरा कैफ़ था कि, 'मैं कुछ जानता हूँ और मैं कुछ पुरुषार्थ करता हूँ।' उनसे मैंने पूछा, 'आप क्या करते हो? क्या पुरुषार्थ करते हो?' उन्होंने कहा, 'आत्मा के लिए ही सब पुरुषार्थ करता हूँ।' तब मैंने पूछा, 'लेकिन पुरुष हुए बिना पुरुषार्थ कैसे हो सकता है? जैसे प्रकृति नचाए, उसी तरह आप नाचते हो और कहते हो कि 'मैं नाचा।'
सारे विश्व को मैं चैलेन्ज देता हूँ कि, 'आप यह जो कुछ भी करते हो वह आपकी खुद की शक्ति नहीं है। अरे! संडास जाने की भी सत्ता आप में नहीं है।' बडौदा के बड़े-बड़े डॉक्टरों को इकट्ठे करके मैंने पूछा कि, 'आप कहते हो कि हम अच्छे-अच्छों को संडास करवा दें, लेकिन क्या वह आपकी सत्ता है?' तब उन्होंने कहा कि, 'वह तो हम ही करवाते हैं न?' तब मैंने उनसे कहा कि, 'आप में खुद में ही संडास जाने की आपकी स्वतंत्र शक्ति नहीं है तो दूसरों को क्या करवाओगे? वह तो जब आपका अटकेगा, तब आपको पता चलेगा कि मेरी शक्ति नहीं थी!' यह तो सब प्रकृति करवाती है और अहंकारी अहंकार करते हैं कि, 'मैंने किया!'
जो कैफ़ चढ़ाए, वह प्राकृत ज्ञान बड़े-बड़े पंडित, शास्त्र पढ़नेवाले शास्त्रज्ञ, बड़े-बड़े साधु महाराज, आचार्य, सभी जो कुछ भी जानते हैं, वह प्राकृत ज्ञान है, वह आत्मज्ञान नहीं है। लेकिन प्राकृतिक ज्ञान है। प्राकृतिक ज्ञान और आत्मज्ञान में छाछ
और दूध जितना फर्क है। यह सारा प्राकृतज्ञान क्या करता है? प्रकृति से प्रकृति को धोता है। प्रकृति से प्रकृति को धोने से वह पतली होती जाती