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धर्म स्वरूप
लोभ-कषायों का निवारण करे, उसे धर्म कहते हैं और अधर्म तो कषाय बढ़ाता है। तब कितने ही लोग कहते हैं न कि रोज़ सामायिक, प्रवचन, ध्यान करते हैं न? क्या ये धर्म नही है? भगवान कहते हैं कि 'नहीं, ये धर्म नहीं है।' भगवान तो कहते हैं कि, "आप ज़रा उनसे पूछो कि 'ये औरों के साथ, शिष्यों के साथ कषाय होते हैं या नहीं होते?" और हम पूछे कि, 'महाराज शिष्यों के साथ कुछ हो जाता है?' तब महाराज कहते हैं कि, 'जब कोई एक भी सामायिक नहीं करता, तब मुझे अंदर बहुत अकुलाहट हो जाती है।' तब तूने जो किया, उसे धर्म कैसे कहेंगे? यह तो बल्कि कषाय बढ़ाता है।।
धर्म सामायिक वगैरह में नहीं है, धर्म तो परिणामित होने में है। धर्म तो वह है जो कषाय भावों का निवारण करे। कषाय भाव तो दबाने से दबाए नहीं जा सकते या उन्हें छीलते रहें या रंदा मारते रहें, तब भी कुछ नहीं होता।
धर्म जब पूरी तरह परिणामित हो जाए, तब 'खुद' ही धर्म स्वरूप हो जाता है!