________________ ( 17 ) पर जहां हिन्दी में 'से' शब्द प्रयुक्त होता है, वहां द्वितीया शिष्ट होती हुई भी इष्ट नहीं है कुछ सार नहीं रखता। द्वितीया का प्रयोग न केवल शास्त्रसंमत है, व्यवहारानुकूल भी है। इसलिये 'चार दिन से मेह बरस रहा है' इसका सर्वथा निर्दोष अनुवाद 'अद्य चतुरो वासरान्वर्षति देवः' ही है। ऐसे स्थलो में द्वितीया के व्यवहार के लिये कुछ एक उद्धरण दिये जाते हैं : २-ततोऽस्मिन्नेव नगर ऊर्जितमुषित्वा कथमिदानी बहून्यहानि दीनवासं पश्यामि ( उभयाभिसारिका पृ० 6, 11) / ३-अद्य बहूनि दिनानि नावर्तते (धूर्तविटसंवादः पृ० 10) / कहीं कहीं इस रचना से भिन्न प्रकार भी देखा जाता है। एक वाक्य के स्थान में दो वाक्य प्रयुक्त किये जाते हैं। पहले वाक्य में काल का निर्देश किया जाता है और दूसरे में क्रिया का ( जो उस काल को व्याप्त करती है / ) जैसे-कः कालस्वामन्विष्यामि (छाया)-स्वप्नवासवदत्ता अङ्क 3 / कः कालो विरचितानि शयनासनानि-अविमारक अङ्क 3 / ननु कतिपयाहमिवाद्य मद्द्वितीयः कर्पोपुत्रो विपुलामनुनेतुमभिगतः-पद्मप्राभृतकम् पृ० 7 / इस प्रकार की रचना की समाधि यह है-यदा प्रभृति त्वामन्विष्यामि तदा 'क: कालस्त्वामन्विष्यामि' इतना ही कहता है। बोल चाल में यह प्रकार भी हृदयङ्गम है। पर अध्याहार की अपेक्षा होने से सर्वत्र प्रशस्त नहीं। वाकोवाक्य में शिथिल-बन्ध भी दूषण नहीं माना जाता। उद्देश्य विधेय-भाव-सिद्ध वस्तु (स्वरूपेण विदित, जिसके विषय में कुछ कहना है ), जिसका प्रथम निर्देश किया जाता है और जिसका यद् शब्द के साथ योग होता है उसे उद्देश्य कहते हैं और जो साध्य वस्तु (जो उद्देश्य के सम्बन्ध में कहा जाता है ), जिसका पीछे निर्देश होता है और जिसका तद् शब्द के साथ सम्बन्ध होता है उसे विधेय कहते हैं। उद्देश्य को अनुवाद्य भी कहते हैं। उद्देश्य को कहे विना विधेय का उच्चारण दोष माना गया है / * यच्छब्दयोगः प्राथम्यं सिद्धत्वं चाप्यनूद्यता। तच्छब्दयोग प्रौत्तय साध्यत्वं च विधेयता // अनुवाद्यमनु क्त्वैव न विधेयमुदीरयेत् / न हलब्धास्पदं किञ्चित्कुत्रचित्प्रतितिष्ठति / /