________________ ( 116 ) संकेत-२-मूलं हि चापलेन भिद्यते पण्डितात् / ३-ग्रामादारादारामः, यत्र व्यवसायान्निवृत्ता ग्रामीणा प्रारमन्ति। 'पारात' का अर्थ 'दूर' और 'समीप' है तो भी प्राचीन साहित्य में विशेष कर वेद में यह दूर अर्थ में ही 'अव्यय' माना जाने लगा ( वे० पारे द्वेषोऽस्मद्य योतन-इत्यादि)। ४-ऋते वसन्तान्नापर ऋतुराजः (नापरऋतुर्ऋतुराजशब्दभाक्)। ५-उदग्भरतवर्षाद् हिमवन्तो गिरयः (हिमवन्तः सानुमन्तः)। श्रेणियों का अनुवाद 'गिरयः' और 'सानुमन्तः' से भी हो सकता है / प्रायः विद्यार्थी 'भारतवर्षम्' का प्रयोग करते हैं, जिसमें भरत शब्द के तद्धितान्त 'भारत' का वर्ष से समास किया जाता है, पर यह उपेक्ष्य है। यदि हम तद्धित का प्रयोग करते हैं तो हमें समास का व्यवहार नहीं करना चाहिये और यदि समास का प्रयोग किया गया है तो हम तद्धित को छोड़ सकते हैं। एक स्थान में दो वृत्तियों का प्राश्रय क्यों लिया जाय ? अतः ठीक प्रयोग 'भारतं वर्षम्' अथवा 'भरतवर्षम' है। इसी प्रकार 'सर्वशक्तिमत्' के स्थान में सर्वशक्ति' का प्रयोग करना चाहिये / १५-धीरा मनस्विनो न धनात्प्रति यच्छन्ति मानम् / यहाँ प्रति प्रतिदान विषय में प्रयुक्त हुमा है / यथा 'तस्मात्प्रति त्रीन्वरान्वृणीष्व' इस कठश्रुति में / 'प्रति' कर्मप्रवचनीय का प्रयोग न हो तो तृतीया भी ठीक होगी-धनेन मानम्-इत्यादि / तृतीया के प्रयोग के साथ विनि-मे (इ) का भी प्रयोग हो सकता है न हि धीरा धनेन मानं विनिमयन्ते (परिवर्त्तयन्ति)। अभ्यास-५ ( उपपदविभक्तिः षष्ठी) १-अपनी प्रिया से नित्य युक्त-शरीर वाला भी शिव निविषय मन वाले यतियों से परे (परस्तात्) है। २-*उसके जन्म का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहते हुए मुझे ध्यान से सुनो। ३-*तुम संसार के लिये वाल्मीकि हो, पर मेरे तो तुम पिता हो। 4- मैं उससे क्रोध करूंगी, यदि मैं उसे देखती हुई अपने आप को वश में रख सकी / ५-हे सुंदरि ! क्या तुम अपने स्वामी को याद रखती हो? क्योंकि तुम उसकी प्यारी हो। ६-थोड़ी वस्तु के लिये (मल्पस्य हेतोः) अधिक छोड़ना चाहते हुए तुम मुझे विचार में मूढ प्रतीत