________________ ( 114 ) १४-मैं नहीं जानता कि मैं इस रोग से कब छूटूंगा, अथवा यह मेरे प्राणों को ही हर लेगा? संकेत–२-कष्टं व्याकरणम्, इदं हि द्वादशभिर्वर्षेः श्रूयते / ३-प्रकृत्या वक्रः (प्रकृतिवक्रः) स न कस्याप्यनुनयं ग्रहीष्यति / ६-कियता कालेन पुण्यपत्तनं प्राप्स्यसि ? ७–स स्वरेण रामभद्रमनुहरति, (प्रस्य स्वरो रामभद्रस्वरेण संवदति) / ११-यद् यन्मे जगत्यां प्रियं तेन तेन ते शपे। यहां 'ते' चतुर्थी है। शप् धातु यद्यपि उभयपदी है फिर भी सौगन्ध खाने अर्थ में प्रात्मनेपद में ही प्रयुक्त होती है / १३-वासिष्ठोऽस्मि गोत्रेण / प्राचीन रीति के अनुसार 'वसिष्ठेन सगोत्रोऽस्मि' / 'वसिष्ठगोत्रीयः' ऐसा कहना व्यवहारानुगत नहीं। प्रन्यास-३ ( उपपदविभक्तिरचतुर्मी) १-*भले लोगों की रक्षा के लिये, दुष्टों के नाश के लिये और धर्म की स्थापना के लिये मैं प्रत्येक युग में जन्म लेता हूँ। २-उसने सेवकों को, अपने स्वामी को मार डालने के लिए उकसाया। ३-उन प्राचीन महर्षियों को प्रणाम हो, जिन्होंने मनुष्य मात्र के प्राचरण के लिये प्राचार के नियम बनाये / ४-गौमों और ब्राह्मणों का कल्यास (स्वस्ति) हो। किसानों और मजदूरों का भला हो / ५-प्रसिद्ध पहलवान देवदत्त के लिये यज्ञदत्त कोई जोड़ नहीं। ६-वह एक ही वर्ष में म्याकरण की मध्यमा परीक्षा पास करने को समर्थ है। ७-कर्म (बींधने) में समर्थ होता है, इसलिये धनुष को 'कार्मुक' कहते हैं / ८-मूखों को उपदेश देना केवल उनके क्रोष को बढ़ाने के लिये ही है, न कि (उनकी) शान्ति के लिये / १-गाय का दूध बच्चों के लिये बहुत लाभदायक (हित) है, ऐसा आयुर्वेदाचार्यों का मत है / १०-यह उत्साह को भङ्ग करने के लिये काफी है / ११-उठो, हम दोनों अपने प्रिय पुत्र के प्रस्थान की तैयारी करने चलें / १२-इसे दस्त माते हैं, इसके लिये लङ्घन ही अच्छा है / यदि रुचि हो तो कुछ पतली सी खिचड़ी ले ले। 1. सुकृत्, सदाचार-वि० / 2. दुष्कृत्, कुपूयाचरण-वि० / 3--3 कृषकेन्या कर्मकरेभ्यश्च कुशलम्भूयात् /