Book Title: Anuvad Kala
Author(s): Charudev Shastri
Publisher: Motilal Banarsidass Pvt Ltd

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Page 189
________________ ( 138 ) फिर भी वह अन्य मतों के प्रति असहिष्णु नहीं था। ४-पानी कितना गहरा है ? घुटने तक है / ५-धीर लोग न्याय के मार्ग से एक पग भी नहीं विचलते / ६-यह राजा ऋषि से बहत मिलता-जुलता है (ऋषिकल्प, ऋषिदेश्य, ऋषिदेशीय) / यह सदा सच्ची और मीठी वाणी बोलता है / ७-आर्य रसोई में मिट्टी के (मृन्मय) पात्रों का प्रयोग नहीं करते, क्योंकि जो पात्र चक्र पर कुम्हार से बनाये जाते हैं वे असुरों के (असुर्य) हैं। ८-बुद्धिमान् जल्दी ही कण्ठस्थ कर लेता है और देर तक धारण करता है। 8-क्षेमेन्द्र के अनुसार मौचित्य के न होने पर कोई वस्तु कविता में सुन्दरता नहीं ला सकती / १०सीता ने रावण से कहा-मैं दूसरे के भार्या होती हुई तेरी योग्य (ोपयिक) भार्या नहीं हो सकती। ११-स्कन्द को इन्द्र की सेना के सेनापतिपद (सैनापत्य) पर नियुक्त किया गया / १२-उनका पारस्परिकभ्रातृस्नेह कुल परम्पराप्राप्त है / यह कहना कठिन है कि लक्ष्मण का राम से अधिक प्रेम है या भरत का। 13- कल तू आजकल की मौजबहार को याद करके पछतायगा / १४-सीता ने राम के प्रश्वमेध में सम्मिलित होने के लिए लव-कुश का प्रस्थान-मंगल किया / १५-यह बेचारा कुटुम्बपालन में लगा रहता है, इसे दूसरे प्रावश्यक कार्यों को करने के लिए समय नहीं मिलता। १६-ऊनी कपड़ा ही इस कड़ी सर्दी से तुम्हें बचा सकता है, कपास का नहीं। १७-वह गंजा है। उसका गंजापन जन्म से नहीं, चिर रोग से उत्पन्न हुआ है / १८-बिजली की चमकदमक ज्योंही होती है त्योंही नष्ट हो जाती है / १६-सौतेली मां का पुत्र होते हुए भी भरत ने श्रीराम और कौसल्या के प्रति जो स्नेह दिखाया उसकी उपमा नहीं मिलती / २०-वर्तमान हिन्दु अपने शत्रुओं का सामना करने में पूर्णतया समर्थ हैं,९ केवल वे दुर्बल बाल, वृद्ध, . 1. रसवती स्त्री० / महानस-नपुं० / तर्कसंग्रह आदि में पुल्लिङ्ग में भी देखा जाता है। 2-2. शोभामाधत्ते, रम्यतामावहति / 3. संस्कृत में 'पारस्परिक' ऐसा तद्धितान्त प्रयोग नहीं मिलता / संस्कृत में इसके अर्थ को विना तद्धित किये समास अथवा व्यास से कहने की रीति है / परस्परं प्रेम, परसरस्य प्रेम, परस्परप्रेम / 4. प्राविकसौत्रिक-वि०। 5. खलति, खल्वाट वि० / ६.खालित्य-नपुं० / इदमस्येन्द्रलुप्तकं चिररोगकृतम् / 7--7. प्राकालिका विद्युद्विलासाः। 5-8. वैमात्रेय-वि० / 6-6. अम्यमिश्याः, अभ्यमित्रोयाः, अभ्यमित्रीणाः / अभ्यमित्रान अलं गच्छन्तीति।

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