________________ ( 178 ) के निग्रह से इंद्रियों के दोष दूर हो जाते हैं / १६-यह काश की चटाई बनाता है और यह दूसरा दर्भ की, दोनों ही एक समान कर्म में निपुण हैं / २०-तुम नित्य नीरोग रहो, बढ़ों फूलो और प्रसन्न रहो। संकेत-४-न घृतेन विनाकृतो भोगो निवेद्यते नारायणाय / ५–एकोऽ परस्य शल्यं कृन्तति, परश्च तस्य शल्यमर्पयति सुखं च तेनानुभवति (संवेत्ति, निवृणोति) तदिदं प्रकृतिभेदनिबन्धनम् (इदं च प्रकृतिभेदे निबद्धम्) / १४-सर्वे वयं त्वयि कृतक्षणाः, संनिपतितः सर्वो विद्वत्समाजः / १६-एवमसक्तं प्रलपसि, स्वं च मेधाविनं बहुश्रुतं च मन्यसे, व्रीडां न कुरुषे कथम् ? यहाँ कृ का अर्थ अनुभव करना है / कृ धातु के नाना अर्थों के लिए हमारी प्रस्तावतरङ्गिणी में 'करोतिना सर्वधात्वर्थानुवादः क्रियते' इस लेख को पढ़िये / 17 ते प्रत्येक विदुरयं नो मिथः प्रीतिव्यवहारः प्रदर्शनार्थो भवति, निर्मायो नेति / यहाँ तेषां प्रत्येकं वेद, ऐसा कहना ठीक न होगा, कारण कि 'प्रत्येकम्' वीप्सा में अव्ययीभाव है और अव्ययीभाव अभाव आदि अर्थों को छोड़ कर स्वभाव से क्रियाविशेषण हा करता है / राजानो हिरण्येनाथिनो भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्तिइस भाष्य-वाक्य में भी प्रत्येकम् क्रियाविशेषण है और प्रदन्त होने से सुप् के स्थान में 'अम्' हुअा है। 'दण्डयन्ति' का अर्थ है-(दम) गृह्णन्ति / १६-प्रयं काशान् कटं करोति, अयमितरो दर्भान् / उभावपि समं कर्मण्यो। २०-अगदं ते नित्यमस्तु, भवधस्व मोदस्व च शश्वत् / अभ्यास-२६ ( संस्कृत पढ़ने का महत्त्व ) देवदत्त-मित्रवर विष्णुमित्र, यह मालूम होता है कि तुम अन्य विषय की अपेक्षा संस्कृत में विशेष रुचि रखते हो, क्या यह ठीक है ? विष्णुमित्र-हाँ, प्रिय मित्र ! देवदत्त-क्या, तुम कृपया मुझे बता सकोगे कि संस्कृत में रुचि पैदा करने वाली ऐसी कौन सी चीज है ? विष्णुमित्र-इसके विशेष माधुर्य और स्फटिक के समान विस्पष्ट रचना ने मेरे हृदय में घर कर लिया है। .