Book Title: Anuvad Kala
Author(s): Charudev Shastri
Publisher: Motilal Banarsidass Pvt Ltd

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Page 236
________________ ( 185 ) लिये कुछ पुस्तकें भी पढ़ता हूँ। इस प्रकार मैं अपने समय का सदुपयोग करता हूँ। तुप अपना समय किस प्रकार बिताते हो। ___ ललित-मुझे कोई कष्ट मालूम नहीं होता। स्कूल से तो मैं कभी ही घर सीधा आता हूँ। मैं अपने हँसमुख मित्रों से जा मिलता हूँ, और फिर हम घूमते-फिरते रहते हैं। हम होटल में जा खाना खाते हैं, कुछ काल तक ताश खेलते हैं। और फिर गप्पें हांकते हैं। इस प्रकार हम अपने समय का सदुपयोग करते हैं। शान्त-प्रिय ललित, तुम अपने समय को व्यर्थ ही खो रहे हो। तुम्हें बाद में इस पर पछताना पड़ेगा। ललित-मुझे पाने वाले दिनों की कुछ परवाह नहीं, मैं तो वर्तमानकाल में आमोद-प्रमोद करने में विश्वास रखता है। यथार्थ में जहां मैं जीवन का आनन्द लेता हूँ, वहां तुम केवल लोहार की धौंकनी की तरह सांस ही लेते हो / शान्त-परन्तु तुम इस बात को भूल जाते हो कि तुम केवल शाक-पात की तरह शरीर वृद्धि कर रहे हो, तुम अपने आपको किस प्रकार पशुमों से भिन्न दिखा सकते हो? ललित-(क्रोध के साथ) मैंने तुम जैसे बीसियों छात्र देखे हैं। ऐसे लोग अपनी शक्ति का नाश करके लोक व्यवहार में प्रवेश करते हैं / मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं अपने जीवन काल में सफलता प्राप्त कर सकता हूँ। शान्त--अच्छा मित्र, तुम्हें यदि ऐसे सफलता प्राप्त हो सके तो मुझे कोई दुःख न होगा। संकेत-ललित-मित्र शान्त ! मैं तुम्हें पुस्तकों में लीन........अहं त्वा नित्यं पुस्तकपाठव्यग्रं पश्यामि, अपि लोकवृत्तान्तानामभितः स्थितानां मात्रयाप्यभिज्ञोऽसि ? शान्त-मुझे बिना किसी उद्देश्य के इधर उधर........अनर्थकः परिक्रमो ( प्रकारणाऽटाट्या, वृथाट्या, वृथाटनम् ) न मे विनोदाय / ललितस्कूल से तो मैं कभी ही घर........पाठालयात् कदाचिदेवाहं तत्कालं गृहमागच्छामि विनोदीनि प्रहासीनि तु मे मित्राणि संगच्छामि संगत्य चोच्चलामः / सम्पूर्वक पम् अकर्मक ही मात्मनेपदी होती है। सकर्मक नहीं। उच्चलामः-उत्थाय चलामः / ललित-मुझे माने वाले दिनों का........न मे समादर प्रायत्याम्, नाहमायति गणये।

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