Book Title: Anuvad Kala
Author(s): Charudev Shastri
Publisher: Motilal Banarsidass Pvt Ltd

View full book text
Previous | Next

Page 259
________________ ( 208 ) दुनिया का खर्च ! मेरा दिल ही जानता है मुझे कितनी कतर ब्योंत करनी पड़ती है। क्या पहन और क्या प्रोढ़ ? तुम्हारे साथ जिन्दगी खराब हो गई। संसार में ऐसे मर्द भी हैं जो स्त्री के लिए आसमान के तारे भी तोड़ लाते हैं / गुरुसेवक को ही देखो, तुम्हारे से कम पढ़ा है, पर पांच सौ मार लाता है / रामदुलारी रानी बनी रहती है / तुम्हारे लिये 75) ही बहुत हैं / रांड मांड में ही मगन / नाहक मर्द हए / तुम्हें तो औरत होना चाहिये था / औरतों के दिल में कैसे-कैसे अरमान होते हैं। पर मैं तो तुम्हारे लिये घर की मुर्गी का बासी साग हूँ। तुम्हें तो कोई तकलीफ होती नहीं। कपड़े भी चाहिये, खाना भी अच्छा चाहिये, क्योंकि तुम पुरुष हो, बाहिर से कमा कर लाते हो / मैं चाहे जैसे रहूँ, तुम्हारी बला से / संकेत-तुम तो खुश थे....""जरूरतों से बचे तब न–चतुरा परिचारिका लब्धेत्यप्रीयथाः / इयं हि विरलमेव भुङ्क्ते तूष्णीकाञ्चास्ते, केवलस्य कशिपुनः कृते शश्रषते / तदपि तदेव लभते यदा गृहेऽन्यार्थे विनियुक्ताच्छिष्येत / प्री (ङ) अकर्मक है, सकर्मक नहीं / माधवीय धातु वृत्ति इसमें प्रमाण है, शिष्टों के प्रयोग भी / 'तूष्णीकाम्' में 'काम्' स्वार्थ में प्रत्यय है। अमर के अनुसार 'कशिपु' नपुंसक है / 'कशिपु त्वन्नमाच्छादनं द्वयम् / ' विश्व के अनुसार पुंल्लिग है और इसका एक साथ ही भोजन और आच्छादन भी अर्थ है-'एकोक्त्या कशिपुभुक्त्याच्छादने च द्वयोः पृथक / ' मेरा दिल ही...."क्या पहनें और क्या प्रोढ़-हृदयमेव मे विजानाति यथाऽहं व्ययमपकर्षमपकर्ष कथंचिद् व्यवस्थापयामि / किं नु परिदधीय किंवा प्रावृण्वीय ? रांड मांड में मगन-रण्डा मण्डेऽभिरक्ता / अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार की रीति से ऐसा कहने में कोई दोष नहीं / भावानुवाद में ही आग्रह हो तो 'अल्पेनैव तुष्यति क्षुद्रा' ऐसा कह सकते हैं। पर मैं तो तुम्हारे'.. बासी साग हूँ-प्रहन्तु ते गेहसुलभोर्थ इति बहुतृणं मां मन्यसे / 'बहुतृणम्' में वहुच् प्रत्यय है / बहुतृणम्-तृणकल्पम् / अभ्यास-५५ फूलमती अपने कमरे में जाकर लेटी तो मालूम हुआ कि उसकी कमर टूट गई है / पति के मरते ही पेट के लड़के उसके शत्रु हो जावेंगे, इसका उसे 1-1. नानार्थेषु चातिप्रचुरो व्ययः / 2-2. अत्यन्तदुर्घटमपि घटयन्ति / 3-3. उत्सपिण्य आशाः / 4-4. किं तवानेन, न ते तच्चिन्त्यं मनागपि / 5-5. निरालम्बास्मि जातेति /

Loading...

Page Navigation
1 ... 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278