________________ ( 147 ) धंसते जाते हैं / १३-क्या कभी हिरन भी सिंहों पर धावा करते हैं ? १४बारिश हुई तो धान हो गये। संकेत-नाहं त्वद्वचसि विश्वसिमि (नाहं त्वद्वचः प्रत्येमि) (श्रद्दधे)। पुराऽप्यसकृद् विप्रलब्धोऽस्मि त्वया / वि+श्वस् अकर्मक है। प्रति+इ, और श्रत् +धा सकर्मक हैं / 2- इतः कियति दूरे करवर्षेराश्रमः ? चतुर्वध्यर्धचतुर्यु (सार्धचतुर्पा, अर्धपञ्चमेषु') वा क्रोशेषु / ३-मा स्म खिद्यथाः प्राप्ता एव वयम् / 'कियद्र आश्रमः' ऐसा समास से नहीं कहना चाहिये / 'कियता दूरः' कह सकते हैं अथवा 'कियदन्तरः' (या किमन्तरः)। अन्तर के मापने में प्रथमा का भी प्रयोग हो सकता है। जैसे-चत्वारः क्रोशाः / और सप्तमी का भी / यथाचतुर्पु क्रोशेषु-इत्यादि / 'अध्यर्घ' बहुव्रीहिसमास है (अधिकमधं येषु, अध्यावं वाऽधं येषु)। इसका फिर चतुर् के साथ कर्मधारय समास हुआ है। ४प्रतिनिकाणं पठसि, तद् दोषाय। ५-समासो बुद्धिलक्षणम् / ६-अहो ! पृथ्वी भगवतः सृष्टिः, क इमामियत्तया परिच्छेत्त मलम् ? ७–कार्यतात्पर्य ते स्तवीमि सारल्यं च / ज्योग्जीव्या उत्तरोत्तरं चाभ्युदियाः। यहां प्राशीलिङ्ग में 'एतेलिङि' से ह्रस्व हुआ है / --चिरात्प्राबुधं येनाहं समलपम्, स मे पुराणः सतीर्थ्य इति / १०-अहं त्वा वैदिकवाङ्मयस्य विशेषज्ञ (मार्मिकम्) जाने / नायमर्थवादः (नेदमुपचारपदम्, नेदमधिकार्थवचनम्)। अयं भूतार्थः (इदं वस्तुकथनम्)। ११-प्रहं त्वां तृणाय मन्ये / अकारणं गुरुतां धत्से (मुधव गौरवमात्मनि संभावयसि) / १२-पिच्छिलेयं भूः / न्यञ्चतो (निषीदतः) मे चरणो। १३-किं हरिणका अपि केसरिणः प्रार्थयन्ते ? यहां प्र+अर्थ अभियान अर्थ का वाचक है / १४-देवश्चेद् वृष्टो निष्पन्ना+व्रीहयः / अभ्यास-४ १-उसने नाना शास्त्रों और कलानों में शिक्षा प्राप्त की है। व्याकरण १-अर्ध पञ्चमम् एषामिति विग्रहः / +णिच् / ऐसे वाक्यों में दोनों खण्डों में तान्त का प्रयोग ही व्यवहारानुकूल है। 'देवश्चेद् वृष्टो निष्पत्स्यन्ते व्रीहयः' ऐसा नहीं कह सकते / इसमें भाष्य प्रमाण है-"देवश्चेद् वृष्टो निष्पन्नाः शालयः" तत्र भवितव्यं सम्पत्स्यन्ते शालय इति"सिद्धमेतत् / कथम् ? भविष्यत्प्रतिषेधात् / यल्लोको भविष्यद्वाचिनः शब्दस्य प्रयोगं न मृष्यति (3 / 3 / 133 // ) / 2-2. अभिविनीतोस्ति / 3. व्याकरणस्य च पारगः, व्याकरणस्य च परपारदृश्वा / यहां दोनों वाक्यों में असमर्थ समास है। पर शिष्ट-सम्मत है।