________________ ( 126 ) रुपये जमा कराए, जिन्हें लौटाने का नाम तक नहीं लिया / ७-मुनियों के वल्कल वृक्षों की शाखाओं से लटक रहे हैं, प्रतः यह तपोवन ही होगा। 8 सो महाराज ! पाप कृपा करके मेरी (नाटय) शास्त्र और उसके प्रयोग में परीक्षा करें। -शत्र का उचित आतिथ्य सत्कार किया जाना चाहिए, यह शिष्टों का प्राचार है / १०-पुरोचन ने लाख के घर को प्राग लगा दो; पर पाण्डव पहले ही वहाँ से निकल चुके थे। ११-कालिदास संसार का यदि सबसे बड़ा कवि नहीं, तो बड़े कवियों में से एक अवश्य था। १२-ऐसी खेलें जो पाठशालाओं में खेली जाती है, प्रत्येक' दर्शक के लिये मनोरञ्जक हो सकती हैं / १३-पैरों में मोच पाने के कारण मैं चल नहीं सकता। १४वह पतिव्रता दमयन्ती नल से सुख वा दुःख में समान प्रेम करती थी। १५पुराना नौकर अपराध करने पर भी निडर (अपराधेऽपि निःशङ्कः) होता है और प्रभु का तिरस्कार करके बेरोक टोक विचरता है। 16- मैं दस सुवर्ष हार गया हूँ / मुझे बहुत दुःख हो रहा है। १७-*हिरन के इस कोमल शरीर पर कृपा करके बाण मत छोड़िये, यह रुई के ढेर पर भाग के समान होगा। १५-शकुन्तला ने किसी पूजा के योग्य व्यक्ति के प्रति अपराध किया है। सकेत–२-श्रीरामः प्रजाः स्वाः प्रजा इव तन्त्रयते 'स्म, (तन्त्रयाम्बभूव) तस्मात्तास्तस्मिन्भूयोऽ नुरज्यन्ते स्म / ३-नेदं स्म सम्भाव्यते त्वयि / 'स्म' शब्द का प्रयोग क्रियापद से पहले भी हो सकता है, और पीछे भो। ५-प्रहमेतदङ्गलीयकं (इमामूमिकां) पुत्र समर्पयामि / नैतच्छोभते मयि / यहां 'पुत्राय' भी शुद्ध होगा, पर प्राचीन साहित्य में सप्तमी का प्रयोग अधिक देखा जाता है / ईश्वरप्रणिधानं तस्मिन्परमगुरो सर्वकर्मार्पणम् ( योगभाष्य ) / कहीं-कहीं द्वितीया भी देखी जाती है। जैसे-तं देवाः सर्वे अर्पितास्तदु नात्येति कश्चन / कठ। सिंहो मतिविभ्रममिवार्पितो न किंचिदप्युदाहृतवान् ( तन्त्राख्यायिका ) / मर्पितः (ऋ+णि-त) का मूल मर्थ 'पहुँचाया हमा' (गमितः) है। प्रतः द्वितीया उपपन्न ही है। अधिकरण विवक्षा में सप्तमी 1. न्यास्यत्, न्यक्षिपत् / 2-2. यत्प्रत्यावर्तनं न जातु वाचापि निरदिशत् / 3-3. शाखासु / अपादान न होने से पंचमी का कोई अवसर नहीं। 4-4. प्रत्येकं दर्शकानां मनोविनोदाय कल्पन्ते। 5. निरवग्रह-वि०। 6. तन्त्र-चुरादि नित्य प्रात्मनेपदी है। 7. अनुरज्यन्ते कर्मकर्तरि प्रयोग है। 'तमनुरज्यन्ते' भी निर्दोष है।