________________ ( 127 ) का प्रयोग होने लगा / कालान्तर में अर्थान्तर (देना अर्थ) हो जाने से चतुर्थी का भी व्यवहार होने लगा / ७-यतीनां वल्कलानि वृक्षशाखास्ववलम्बन्ते, प्रतस्तपोवनेनानेन भवितव्यम् / यहाँ 'वृक्षशाखाभ्यः' ऐसा पञ्चम्यन्त प्रयोग बिल्कुल अशुद्ध है, क्योंकि यहाँ पर कोई अपादान कारक नहीं है। हिन्दी के 'से'' को देखकर भ्रान्ति होती है / १०-पुरोचनो जतुगृहेऽग्निमदात्, पाण्डवास्तु ततः प्रागेव ततो निरक्रामन् / 16 - दशसु सुवर्णेषु पराजितोऽस्मि (चारुदत्त, अंक 2) / यहाँ सप्तमी का प्रयोग विशेष अवधेय है / महाभारत में तो हारी हुई वस्तु को 'कर्म' माना गया है-बहु वित्तं पराजैषीः पण्डवानां युधिष्ठिर ! (सभा० 65 // 1) / व्याकरण के अनुसार 'पराजेष्ठाः' ऐसा आत्मने० में रूप साधु होगा / यहाँ पराजि का अर्थ हारना, खोना है। दुरोदरेण पराजयत द्रौपदी धर्मराजः, युधिष्ठिर ने जुए में द्रोपदी को हार दिया-यहाँ भी इस अर्थ को एयन्त ह से भी कह सकते हैं। अभ्यास-१४ १-*ज्योंहो वे समुद्र 2 पार पहुँचे, आदि पुरुष जाग पड़ा (च--च) / २श्रीमन् ! (अंग) कृपया आप इस बालक को व्याकरण पढ़ाइये। ३-हे मित्र (अयि) कृपया आप मेरी प्रार्थना को न ठुकराएँ। ४-जैसे ही (यावदेव) मैं वहां पहँचा, वैसे ही (तावदेव) मैंने पूछ-ताछ शुरू कर दी, और अभियुक्तों को बिल्कुल निर्दोष पाया / ५-जब से (यदेव) उसने घर छोड़ा है, तब से (तदा प्रभृत्येव) उसकी माता बहुत व्याकुल है / ६-माना (कामम्) कि मैं दुर्बल हूँ, फिर भी मैं उससे बढ़-चढ़ कर हूँ। ७-*राम दुबारा बाण सन्धान नहीं करता आश्रितों १-यहाँ यह जानना भी विद्वानों के प्रमोद के लिए होगा कि पद (जाना) के प्रतिपूर्वक ण्यन्त रूप 'प्रतिपादि' के प्रयोग में भी एयन्त ऋ (अपि) की तरह द्वितीया, सप्तमी और चतुर्थी विभक्तियाँ देखी जाती हैं / यहाँ भी प्रतिपादन का मूल अर्थ 'पहुँचाना' मानने से द्वितीया निर्बाध ही है-सर्वरत्नानि राजा तु यथार्ह प्रतिपादयेत् / ब्राह्मणान् वेदविदुषो यज्ञार्थं चैव दक्षिणाम् // (मनु० 11 // ) / एतां मालां च तारां च कपिराज्यं च शाश्वतम् / सुग्रीवो वालिनं हत्वा रामेण प्रतिपादितः // (रा० युद्ध० 28 // 32 // ) / सामीपिक अधिकरण की विवक्षा में मूल अर्थ को ही स्वीकार करते हुए सप्तमी का प्रयोग होने लगा-धनानि तु यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत् (मनु० 11 // 6 // ) / कालान्तर में 'देना' अर्थ स्वीकार होने पर चतुर्थी का प्रयोग भी होने लगा-गुणवते कन्या प्रतिपादनीया (शकुन्तला अक 4) / प्रथिम्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धि पराम् (भर्तृ. 2 // 16 // ) / २-सरस्वत्, उदन्वत्, अकूपार-पुं० /