________________ ( 131 ) जितने आप अधिक नरम होते हैं, उतना ही वह ढीठ होता जाता है (यथा यथा) (तथा तथा)। 14 वर्तमान विश्वव्यापी युद्ध प्रारम्भ ही हुमा था, कि दुकानदारों ने प्रायः प्रत्येक वस्तु की कीमत दुगुनी क्या चौगुनी कर दी। कितनी स्वार्थपरता ! 15 -जब तक सांस तब तक मास। १६-मैंने अभी (यावदेव) पुस्तक हाथ में लो ही थी कि नींद ने मुझे प्रा घेरा'। 17-* मन्त्री को कहो हमें स्वीकार है (प्रोम्) / १५-पापको मंगल, बुध की छुट्टी है, आप किसी एक दिन (अन्यतरेद्य :) मुझे मिल सकते हैं / ___संकेत-२-इदमसाम्प्रतम् (नेदं प्रस्तावसदृशम्) व्याक्षेपणीयो विमर्शः / संस्कृत में स्थग् का अर्थ डांपना या घेरना है। स्थगितमम्बरमम्बुदैः / हिन्दी "ठग" इसी धातु से बना है-ऐसा विद्वानों का मत है। अतः यहाँ 'स्थगनीयः' ऐसा नहीं कह सकते। ८-कच्चित्कुशली तातः सुखिनी वाऽम्बा ? 'सुखवती' नहीं कह सकते। १०-यथा यथाहं संस्कृतं वाङ्मयमध्ययि तथाऽस्मत्संस्कृतेगौरवं प्रति प्रत्ययितोऽजाये / १४-वर्तमानो विश्वं व्यश्नुवानः समरश्च समारम्यत, आपणिकाश्च प्रायेण प्रत्येकं वस्तूनाम न केवलं द्विगुणतामापादयंश्चतुर्गुतामपि / अहो स्वार्थप्रसङ्गः ! अभ्यास-१७ (अव्यय, निपात) १-+राजा-जयसेन ! क्या (ननु) गौतम ने (अपना) काम समाप्त कर लिया है ? प्रतिहारी-जी हां ! (अथ किम्) ? २-भीम और (अथ) अर्जुन ने भारत युद्ध में बहुत पराक्रम दिखाया / ३-*क्या मैं आशा करूं ? (अपि) कि वह ब्राह्मण का लड़का जी जाय / ४-एक ओर तो उसका काम कठिन है, और दूसरी ओर उसका बल घट गया है (च-च)। 5-* यह कैसे सम्भव हो (कर्ष नु) कि मैं गुणवती स्त्री को पाऊँ / ६-ऐसी सुंदर मधुर वाणी बोलो कि कोयने भी चुप हो जाएँ। ७-मित्र देवदत्त ! (ननु देवदत्त) इतनी कठोरता कहां से प्रा गई कि पास से निकलते हुए इधर दृष्टि नहीं डालते हो ? -प्रब (हन्त)२ मैं तुमसे अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन करता हूँ। -विदूषक-पूज्ये ! मानो मेढों की लड़ाई देखें / व्यर्थ (मुधा) वेतन देने से क्या ? १०-बड़े हर्ष 1-1. निद्रयाऽपाहिये / २-यहां 'हन्त' वाक्यारम्भ में प्रयुक्त हुआ है, मर्थ विशेष कुछ नहीं / 'हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषाद:'-अमरः /